मेरी मां
आज मकर संक्रान्ति है.मिथिला क्षेत्र में इसे प्रायः तिल-संक्रान्ति भी कहा जाता है. आज यह परम्परा है कि नहीं निश्चय से नहीं कहा जा सकता किंतु मेरे बाल्यकाल के दिनों में मुझे याद है कि देव-पितर एवं भगवान भास्कर की पूजा के पश्चात मां अपने बच्चों को गुड़,तिल एवं अरवा चावल को मिलाकर उसे अपने बच्चों के नन्हे हाथों में देकर तीन बार पूछती थी कि तिल बहोगे न?तिल बहोगे न?तिल बहोगे न? बच्चे भी मीठे-मीठे गुड़ तिल पाने के लालच में जल्दी जल्दी हां-हां-हां में जवाब देते चले जाते थे.
इसका आशय मेरी समझ से यही है कि बेटा जब बड़ा होकर लायक बने तो वह अपने मां-बाप की समुचित देखभाल करेगा; इसी का वह अपने बालक बेटे को तिल चावल खिला कर वचन लेती थीं.
मेरी मां प्रायः बीमार हीं रहती थी. आज के दिन वह मेरे हाथों में तिल चावल देकर जब मुझसे ये बात पूछती थी तो पूछते-पूछते रोने लगती थी. मैं इसका कारण समझ नहीं पाता था कि गुड़-तिल-चावल मुझे देते समय मेरी मां रोने क्यों लगती है. भला इसमें रोने की क्या बात है! और इस पर मैं ज्यादा ध्यान भी नहीं देता था;ध्यान तो जल्दी जल्दी हां हां करते वो गुड़ मिश्रित तिल-चावल खाने पर रहता था ताकि तुरंत घर से बाहर निकल पतंग उड़ाया-लूटा जा सके.
प्रत्येक संक्रान्ति यह क्रम चलता रहा जब तक कि मैं बाहर पढ़ने नहीं निकल गया. तब सहज रुप से फोन भी उपलब्ध नहीं था और मोबाइल की तो बात ही नहीं थी. मेरा इंजीनियरिंग पढ़ाई का दूसरा साल चल रहा था, उम्र करीब १८-१९की रही होगी. मुझे घर से खबर आई कि मां पहले से बहुत ज्यादा बीमार हो गयी है.
मेरे घर पहुंचने के एक दिन बाद ही मेरी मां चल बसी.ऐसा लगा शायद वो मेरे आने की हीं प्रतीक्षा कर रही हों.
मेरी पढ़ाई पूरी हुई, नौकरी भी लग गयी किंतु
मुझे यह जानने में कई वर्ष लग गए कि मेरी मां मुझे गुड़-तिल देते वक्त क्यों रो देती थी.
मेरा तिल-चावल खाकर हां- हां करते हुए वचन देना एक झूठ था जिसे मैं नहीं समझता था किन्तु वह अच्छे से समझती थी.
राजीव रंजन प्रभाकर.
१४.०१.२०२१.
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