लाॅकडाउन के दिनों की एक कहानी.
मैं भी घर कहां आ पाता हूँ. ये तो लाॅकडाउन को धन्यवाद कहना चाहिये कि इसने मेरे जैसे परदेस में रहकर नौकरी करने वाले को घर आने का मौका बिना नौकरी गंवाये उपलब्ध कराया. WFH(work from home) term शायद इससे पहले कभी इतना नहीं पोपुलर हुआ जितना इन दिनों.
घर आने पर सब कुछ बदल गया सा मालूम हो रहा था. घर की दीवारे, कमरा, चंद रोजमर्रा के सामान जिसका सालों से कोई देखभाल करने वाला नहीं था, मुझे उलाहना दे रहे थे. खास कर मेरे कमरे की लकड़ी की आलमारी में रखी किताबें और कुछ ऐसे हीं चंद सामान मुझे पुराने समय की याद दिला रहे थे कि कैसे मैं इन किताबों को रोज झाड़ पोछ कर करीने में लगा कर मन हीं मन खुश होता था. ये बात और थी कि जितनी किताबें मैने जमा कर रखी थी उसका चौथा हिस्सा भी कभी मैने पढ़ा हो. ये तो गनीमत कहिये कि मकान का एक भाग जिसे मैने किराये पर उठा रखा है, का किरायादार भला आदमी है जो इस घर के बांकी बचे हिस्से की भी थोड़ी बहुत देख रेख कर देता है.
शाम होने को थी. लेकिन मई-जून की गरमी शाम तक भी कहाँ कम होती है. मैं दरवाजे के सामने खाली जगह जो घास-फूस उग आने से बहुत ही छोटी हो गई थी, में कुर्सी लगा कर बैठ हर आने जाने को देख उन्हें पहचानने की कोशिश कर रहा था. आखिर नौ साल का फासला मायने रखता है. मैने भी तो बेंगलुरु में एक फ्लैट ले लिया जिससे घर आना लगभग छूट ही चुका था.
अरे ये तो अपने प्रोफेसर सहाय सर हैं. हाथ में झोला लिये शायद बाजार जा रहे थे. उनका मकान जो मेरे घर से पहले दिखता था, अब इस दरम्यान दसियों बड़े बड़े मकान बन जाने से दृष्टि से ओझल और बहुत दूर हो गया था. सहाय अंकल को देख पहचानना जरा मुश्किल था, कितने बूढ़े हो चले हैं! कालेज के दिनों में उनका रोब देखते हीं बनता था. एक तो देखने में स्मार्ट दूसरे अंग्रेजी के एचओडी. मेरे कालेज के दिनों में काफी धाक थी उनकी.
प्रणाम अंकल! मैने उनसे कह उनके पैर छूने की कोशिश की.
आप कौन हैं? माफ कीजिये मैं आपको पहचान नहीं पा रहा हूँ-उन्होंने बुझे अंदाज में कहा.
जी मैं समीर. आप मुझे नहीं जानते होंगे. मैं आपका स्टुडेंट रहा हूं, शायद आप मेरे पिताजी सत्यनारायण बाबू को जानते होंगे. वे उसी कालेज में बड़ा बाबू थे जिसमें आप अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे थे. वे अब नहीं रहे. ये उन्हीं का घर है. मैं उनका हीं लड़का हूँ. अभी बेंगलुरु में रह रहा हूँ. अब कम्पनी का चीफ मैनेजर हो गया हूँ. मैने थोड़ा झेंपते हुए उनसे कहा. आइए अंकल कुछ देर यहीं बैठिए, आप थके मालूम पड़ते हैं.
हां समीर! तुम सही कह रहे हो. मैं अब बिल्कुल हीं थक गया हूँ-प्रोफेसर साहब बोले.
अंकल आपके लड़के अमन और सुमन आजकल कहाँ हैं? अमन तो पहले हीं चांस में आईआईटी कर गया था, ये तो जब मैं बेंगलुरु गया था उसी समय पता चला था. पढ़ने में बहुत ब्रिलिएंट थे दोनो भाई. छोटा सुमन को तो मानो पूरी अंग्रेजी डिक्शनरी पर हीं कमांड था. थे तो दोनो हमसे छोटे लेकिन सुमन से तो हम बात करने में भी घबराते थे. कभी अंग्रेजी से नीचे वह उतरता हीं नहीं था. वो क्या था कि मेरी अंग्रेजी शुरू से थोड़ी कमजोर थी.-मैने सकुचाते हुए कहा.
अंकल ठंडी आह भरते हुए बोले-अमन तो अमरीका में सेटल कर गया है. जीइसी का शायद जनरल मैनेजर हो चुका है. अब तुमसे क्या छुपाना उसको इंडिया आये चार साल हो गये. पहले बात भी होती थी अब डेढ़-दो साल से बात भी नहीं हो होती.
और अमन यहीं दिल्ली में सेंट स्टीफन कालेज में लेक्चरर है. वह भी नहीं आता. वहीं एक साथी लेक्चरर से उसने शादी कर ली, तब से वह भी नहीं आता है. सुना है उसकी पत्नी अपने मां-बाप की इकलौती संतान है. शायद इसीलिए. प्रोफेसर साहब आंख नीची किए कहे जा रहे थे.
मैं उनके बात से बहुत कुछ समझ गया. और पूछना मुनासिब नहीं समझ, उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछ बैठा.
उन्होंने कहा- घुटने के दर्द से बहुत परेशान रहता हूं. डाक्टर नी-ट्रांसप्लांट कराने को कह रहे हैं. लेकिन मैं नहीं करानेवाला.
अचानक वे उठे और बोले - अब चलता हूँ, तुम्हारी आंटी परेशान हो रही होंगी. देर हो गयी है, अब बाजार भी कल ही जाउंगा.
उनके जाने के बाद मैं बहुत देर तक यूं ही गुमसुम सोचता रहा. पता नहीं क्यों मुझे अपने दोनो बच्चे का ख्याल आ रहा था जो बोर्डिंग स्कूल में पढ़ रहे हैं.
जून का पूरा महीना गुजर गया. कोरोना का प्रकोप किसी भी सूरत में कम नहीं हो रहा था. मैं भी अपने टार्गेट को पूरा करने में घर से ही जी-जान से लगा हुआ था. आप कितने भी उंचे ओहदे पर क्यों न हों, नौकरी जाने का खतरा हमेशा प्राइवेट में बना रहता है. तिस पर ये लाॅकडाउन. दो मिनट में कभी ये मेल आ सकता है कि कम्पनी हित में आपकी सेवा समाप्त की जाती है. ये सोचकर मन में डर बैठा जा रहा था. फ्लैट का इंस्टालमेंट, बोर्डिंग का भारी-भरकम फीस आदि आदि.
सुबह में मैं अपने दरवाजे पर यूं ही बैठा था, तभी मेरे किरायादार ने आकर कहा - जानते हैं सर! सहाय जी जो पिछले महीने अपने यहां आये थे, उनकी पत्नी का देहांत पिछले हफ्ते हो गया. ये बात मुझे कल शाम में पता चला.
मुझे यह जानकर बहुत अफसोस हुआ. सोचा प्रोफेसर साहब के यहां चल कर उनसे मिलना चाहिए.
उनके यहाँ पहुंचने पर देखा प्रोफेसर साहब गुमसुम बरामदे पर बैठे थे. जो लोग आये थे वे शायद जा चुके थे. पूरा मकान वीरानगी की चादर ओढ़े था. बगल में एक मकान था जिस पर डाॅ. डाॅली सिन्हा, गायनेकोलोजिस्ट एमबीबीएस, एमडी वगैरह का बोर्ड लगा था. मेरे समय में यह मकान या फिर डाक्टर साहिबा यहां नहीं थी.
अरे समीर! आओ बैठो. प्रोफेसर साहब ने मुझे देखते हीं कहा.
सबकुछ अचानक हो गया. बीमार तो वह थी, लेकिन अचानक सीने में दर्द उठा, मैने डाॅली बेटी को फोन लगाया, लेकिन उसके आने से पहले हीं वो चल बसी. अंकल बिलख रहे थे. पता चला कि अंकल के दोनों बेटे अपनी मां के देहांत या उनके क्रिया कर्म में भी नहीं आये थे. सब कुछ उन्हीं डाक्टर साहिबा और उनके स्टाफ के सहयोग से जो कुछ भी हुआ, हो सका. डाक्टर साहिबा के प्रति मेरे मन में आदर का भाव स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हुआ. इसके कुछ देर के बाद मैं अपने घर लौट आया. मेरे दोनो बेटे जिस मैं बहुत प्यार करता हूँ, की याद अचानक से मुझे परेशान करने लगी. मेरी पत्नी उसे अपने से अलग बोर्डिंग में भेजने को तैयार नहीं थी. खैर.
अभी मुश्किल से तीन हफ्ते हीं बीते थे कि फिर मेरे किरायेदार ने आकर कहा, सर! प्रोफेसर सहाय गुजर गये. कल रात में हीं उन्हें शायद दिल का दौरा पड़ा. सुबह जब उनका दरवाजा काफी देर बंद रहा तो डॉक्टर साहिबा को अंदेशा हुआ. काफी लोग जब जमा हो गये तो दरवाजा तोड़ने पर उनको मृत पाया गया.
मैं तुरंत हीं वहां जाने के लिये चल पड़ा. साथ में मेरा किरायादार भी था.
डाक्टर साहिबा शायद उनके दोनों बेटों से बात कर चुकी थीं. उनका चेहरा तमतमाया हुआ था. प्रोफेसर साहब के दोनों बेटे आने में अपनी लाचारी बता रहे थे. बड़ा लड़का कोई प्रोजेक्ट पर काम कर रहा था जिसमें उसे लीव मिलना मुश्किल था. छोटा पत्नी के साथ साउथ अफ्रीका में किसी सेमिनार में व्यस्त था.
ये जान मैने डाक्टर साहिबा से कहा, जरा मुझे बड़े का नम्बर दीजिए, मैं भी जरा बात कर के देख लूँ. छोटे से तो मैं अब भी बात शायद नहीं कर पाऊँ.
अमन! मैं समीर बोल रहा रहा हूँ. मुझे अगर पहचान रहे हो तो मुझे इतना हीं कहना है कि यदि तुम नहीं आ सकते हो तो हमलोग अंकल का अंतिम संस्कार करने की तैयारी कर रहे हैं और यदि तुम्हारे आने का कोई निश्चय हो तो बाॅडी को दोएक दिन रखा जा सकता है. अपना डिसीजन तुम दो घंटे के भीतर बता दो फिर बांकी तैयारी हमलोग कर लेंगे.
मेरे बात करने के लहजे से या फिर पता नहीं किस कारण से उसने कुछ सोचकर कहा-अच्छा ठीक है समीर भैया, मैं नेक्स्ट फ्लाइट से आता हूँ.
अमन आया. आते हीं उसने अपनी व्यस्तता के हवाले से कहा कि मेरा तेरह दिनों तक रूकना सम्भव नहीं है. इसलिए कोई shortest method से सारा रिचुअल हो जाय, ये मैं चाहता हूं. अधिक से अधिक मैं तीन चार दिन हीं रूक पाउंगा.
सब कुछ जेट स्पीड से हुआ. आखिर अमन को वापस अमरीका जो लौटना था.
चौथे दिन अमन वापस अमरीका लौट गया. सहायजी के लाॅन के सदर दरवाजे पर डाक्टर साहिबा ने अपने कम्पाउंडर से कह ताला लगा दिया. अमन जाते समय डाक्टर साहिबा से कह रहा था-अब इस बंगले को आंटी हम आप पर हीं छोड़ रहे हैं. जैसा समझ आये इसकी देखभाल या उपयोग कीजिएगा. डाक्टर साहिबा ये सुन अंदर से खुश हो रही थी. अमन इस समय उसे निहायत हीं भला और भोला दिख रहा था. हालांकि इसे यह जाहिर नहीं कर रहीं थी जो कि स्वाभाविक था. शायद मन हीं मन सोच रहीं हों कि इसका नर्सिंग होम के रूप में बढ़िया यूज होगा.
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एक महीना बाद
मैडम आपसे कोई मिलने आये हैं-कम्पाउंडर ने अंदर आकर डाक्टर साहिबा से कहा.
जी मेरा नाम मोहम्मद यूसुफ है. मेरा इसी शहर में प्रोपर्टी डीलिंग का कारोबार है. प्रोफेसर साहब का बंगला अमनबाबू ने हमारे हाथ बेच दिया है. पैसा भी दोनों भाई पा चुके हैं. ये रजिस्ट्री के कागजात हैं यदि आप देखना चाहें.
वो सदर दरवाजा एवं लाॅन के गेट की चाभी अमन बाबू ने फोन से बताया है कि वह आपके पास है, वही लेने आया हूँ.
(ये कहानी सत्य घटना पर आधारित है, जिसमें कतिपय महत्वहीन परिवर्तन मात्र किये गये हैं)
राजीव रंजन प्रभाकर
१९.११.२०२०.
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