अपने भीतर के शत्रुओं से लड़ने से ही आत्मविजय का द्वार खुलता है.
मानव मन में सभ्य और विकसित के साथ ही आदिम, पुरातन एवं शिशु भी उपस्थित रहता है. हमारे अन्दर जो जड़ता और बुराई है, उसके विरुद्ध हमें संघर्ष जारी रखना चाहिए. हमारे समस्त शत्रु हमारे अंदर ही हैं. जो वृत्तियां हमें चरित्रभ्रष्टता के लिए बहकाती हैं,जो आग हमारे अन्दर जलती है, वह सब अज्ञान एवं त्रुटि के उस अंतःक्षेत्र से ही उठती है, जिसमें हम रहते हैं. मानव की महिमा इस बात में नहीं है कि वह कभी गिरे नहीं, बल्कि इस बात में है कि हर बार वह गिरने पर उठ खड़ा हो.
आत्मविजय लालसा से शांति तक पहुंचने का ही मार्ग है. पाप करने एवं दु:ख भोगने के जीवन की अपेक्षा एक महत्तर जीवन है. किसी मनुष्य की साधुता की मात्रा का परीक्षण इस बात से होता है कि वह किस सीमा तक अपनी प्रकृति की दुर्बलताओं पर प्रभुत्व पाने में समर्थ हुआ है. धर्म जीवन से बाहर ले जाने का मार्ग नहीं है, अपितु जीवन की ओर ले जानेवाला मार्ग है.
सभी धर्मों में जीवन पर बल देने वाले एवं जीवन का निषेध करने वाले मनोवेगों का परस्पर संघर्ष है. इन मनोवेगों की अन्तःक्रिया ने भारतीय चिंतन-धारा को बारम्बार नूतन रुप दिया है और आध्यात्मिक अन्वेषण में भारत को अग्रसर किया है.
- - डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
(उनकी पुस्तक-
"भारतीय संस्कृति-कुछ विचार" से उद्धृत एक अंश)
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