दुःख से सभी झिझकते हैं और सुख की इच्छा सभी करते हैं

उपरोक्त शीर्षक
दुःखादुद्विजते सर्वः सर्वस्य सुखमीप्सितम जो महाभारत शांतिपर्व का एक श्लोकांश है, का सरल सीधा अनुवाद है।
आज सभी सुख सुविधा जुटाने में पागल हुए जा रहे हैं। सुख को पाने के लिए दुःख उठाये जा रहे हैं। सुख है कि मिलता नहीं। बस हाथ आते आते फिसल जाता है। अगर कदाचित् मिल भी गया तो दूसरे हीं पल इसका मोल तुरंत घटता मालूम पड़ता है। फिर मन दूसरे सुख की ओर उन्मुख हो मचलना शुरू कर देता है। मतलब मन को शांति मिलती हीं नहीं, सुख से बंचित मन सदैव चंचल एवं क्षुब्ध! यही तो हर व्यक्ति की कहानी है। इसी मनोव्यापार में मौत कब बिना बुलाये आ धमकता है, पता ही नहीं चलता।
सुख-दुःख शाश्वत है, इससे कोई अछूता नहीं रहा है चाहे कोई संत हो, सन्यासी हो, गृहस्थ हो या फिर ब्रह्मचारी। जब जीवन है तो सुख और दुःख भी लगा हीं रहेगा। जीने की कुशलता इसमें है कि न सुख को आदर दिया जाय न हीं दुःख को।यह दिन और रात की तरह है, आप चाहे या न चाहें जब तक हमारा जीवन है इनका क्रम से आना जाना लगा रहेगा।
सुख या दुःख है क्या? यह मन का बाहरी दुनिया के प्रति किया गया व्यापार है। इस व्यापार में घाटा होता देख मन दुःखी होता है और यदि यह मनोव्यापार लाभदायक महसूस होता है तो सुख की अनुभूति होती है।
देखा जाय तो कोई भी कोई कार्य दुःख पाने के लिए नहीं करता है। हम या तो सुख पाने की नीयत से अथवा दुःख की निवृत्ति के लिए हीं किसी कर्म में प्रवृत्त होते हैं। हम जो कर्म करते हैं उस कर्म करने के उद्देश्य में हीं सुख या दुःख छिपे रहते हैं।
मेरा निजी अनुभव यही कहता है कि बाह्य उपादानो से सतत सुख प्राप्त करने की चेष्टा में हीं दुःख निहित रहता है और दुःख की परिणति अंततः सुख में बदल जाने की होती है।खोजने पर हमें इसके अनेक उदाहरण मिल सकते हैं। इसलिए जब ऐसा लगे कि तन और मन भौतिक सुखसमुद्र में डूब उतरा रहा हो तो समझना चाहिये कि शीघ्र ही इसके विपरीत जीवन का कष्टाध्याय प्रारंभ होने को है। यह चेतने में हमारी मदद करता है। ऐसे अनुभव को आदर देने पर चित्त की दुर्दशा से तो बचा हीं जा सकता है साथ ही इस भाव के आश्रय से लोक निंदा से भी रक्षा होती है।
शेष ईश्वरेच्छा.
राजीव रंजन प्रभाकर.
०५.०१.२०२०.

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