मानवजीवन में त्याग का महत्व
वैसे तो इस संसार में मनुष्य का भोगों के प्रति आकर्षण स्वाभाविक मालूम पड़ता है, पर विचारने पर दृष्टिगत होता है कि त्याग हीं वह तत्व है जिसे महत्व देने पर मनुष्य का जीवन वास्तविक रूप से सुखमय, कल्याणमय और आनंदमय हो पाता है।
इसे अनुभव का विषय कहने में कोई आपत्ति नहीं होना चाहिये कि जैसे-जैसे व्यक्ति भोगपरायण होता जाता है उसकी प्रवृत्ति संग्रह और परिग्रह की होती चली जाती है। संग्रह-परिग्रह का भाव क्रिया का वह वेग है जिसका परिमाण, तीव्रता और दिशा हम इस प्रकार तय करते हैं कि संग्रहित वस्तु और सेवा का उपभोग सदा पीढ़ी दर पीढ़ी सिर्फ हम और हमारा परिवार हीं करे तथा दूसरे को इसके उपयोग तक से भी वंचित रखा जाय। व्यक्ति अपने हीं विवेक का निरादर करना आरंभ कर देता है। अपने विवेक की उपेक्षापूर्ण निरादर करता हुआ संग्रह-परिग्रह के वशीभूत किसी व्यक्ति के कार्यकलाप को दूर से देखना प्रायः एक ज्ञानवर्धक अनुभव हो सकता है। हम देखते हैं कि जैसे हीं उसके संग्रह-परिग्रह के मार्ग में कोई बाधा उपस्थित होता है, उसे समाप्त करने के लिए वह किसी भी सीमा तक स्वयं को ले जाता है। परिणामतः ऐसे लोलचित्त व्यक्ति को अंततः प्रायः अपनों से हीं तिरस्कार, अपमान, दुःख एवं क्लेश का भागी होना पड़ता है। और यदि संग्रह-परिग्रह भ्रष्टाचार एवं पापाचार से प्रेरित हो तो आश्चर्य नहीं कि उस व्यक्ति को जीवन के सांध्यवेला तक में भी अपने उस दुष्कृत्य की खातिर अंततः दण्डित भी होना पड़े। ऐसे अनेक उदाहरण है जिसका उल्लेख यहां किया जाना कोई आवश्यक नहीं है सिवा इसके कि हम इसे आम घटना समझ कर उस पर कोई खास ध्यान नहीं देते; बल्कि भोगज्वर से पीड़ित उसकी उपेक्षा हीं करते हैं। यह ज्वर उतरता जरूर है लेकिन अधिकांश मामलों में तब तक बहुत देर हो चुका होता है।
मेरी समझ में भोग स्वयं में हेय नहीं है बल्कि भोग के प्रति हमारी वह आसक्ति है जो अधिकांशतः हमारे पतन के हेतुरूप में कार्य करता है।
आसक्ति से हमारा अभिप्राय हमारी उस मनोवृत्ति से है कि जो भौतिक सुख-सुविधा तथा सेवा हमें प्रारब्धवश (अथवा उद्योगवश) प्राप्त है वह अक्षुण्ण हीं नहीं बल्कि उसमें प्रतिपल वृद्धि होती रहे।अनुभव साफ कहता है कि ऐसा सम्भव नहीं है फिर भी हम इस प्रवृत्ति का दास बन काम, क्रोध और लोभ के गह्वर में विलीन हुए जा रहे हैं। इसलिये हम यह कह सकते हैं कि मनुष्य अगर पतनोन्मुख होने से बचना चाहे तो पहले उसे भोग के त्याग करने की आवश्यकता नहीं बल्कि प्रारब्धवश वा उद्योगवश प्राप्त उस भोग के प्रति आसक्ति का त्याग करना आवश्यक हीं नहीं परमावश्यक है।
श्रीमद्भगवद्गीता में त्याग का स्थान साधन के रुप में सर्वोपरि कहा गया है; कारण इसके आश्रय से तत्काल हीं शान्ति प्राप्त हो जाती है।त्याग को अभ्यास, शास्त्रज्ञान, ध्यान इन सभी से श्रेष्ठ माना गया है। त्याग से तात्पर्य कर्मफल की इच्छा के त्याग से है।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्याच्छान्तिरनन्तरम।।
(श्रीमद्भगवद्गीता, 12/12)
सोचिये जहां गीताजी कर्मफल की इच्छा का त्याग करने के लिये कहती है वहीं हम आसक्ति का भी त्याग नहीं कर पाते हैं।
त्यागजन्य शांति एवं सुख के महत्व को दर्शाने के प्रयोजनार्थ इसे इस लेखन का Anticlimax हीं कहा जायेगा जब हमें यह लिखना पड़े कि व्यक्ति को मल-मूत्र के त्याग जैसी दैहिक क्रिया से जब सुख की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है तो कर्मफलत्याग से प्राप्त होने वाली शांति का स्वरूप एवं परिमाण क्या होता होगा! निश्चितरूप से वह एक योगसाध्य अनिर्वचनीय अवस्था है।
इसलिये यदि कम से कम इस आसक्ति का त्याग हो जाय तो यह व्यक्ति का उसके स्वयं के प्रति सबसे बड़ी सेवा है जो उसके जीवन को विलक्षण रूप से आगे के लिये मूल्यवान बना देती है।
शेष भगवत्कृपा.
राजीव रंजन प्रभाकर,
११.०८.२०१९.
इसे अनुभव का विषय कहने में कोई आपत्ति नहीं होना चाहिये कि जैसे-जैसे व्यक्ति भोगपरायण होता जाता है उसकी प्रवृत्ति संग्रह और परिग्रह की होती चली जाती है। संग्रह-परिग्रह का भाव क्रिया का वह वेग है जिसका परिमाण, तीव्रता और दिशा हम इस प्रकार तय करते हैं कि संग्रहित वस्तु और सेवा का उपभोग सदा पीढ़ी दर पीढ़ी सिर्फ हम और हमारा परिवार हीं करे तथा दूसरे को इसके उपयोग तक से भी वंचित रखा जाय। व्यक्ति अपने हीं विवेक का निरादर करना आरंभ कर देता है। अपने विवेक की उपेक्षापूर्ण निरादर करता हुआ संग्रह-परिग्रह के वशीभूत किसी व्यक्ति के कार्यकलाप को दूर से देखना प्रायः एक ज्ञानवर्धक अनुभव हो सकता है। हम देखते हैं कि जैसे हीं उसके संग्रह-परिग्रह के मार्ग में कोई बाधा उपस्थित होता है, उसे समाप्त करने के लिए वह किसी भी सीमा तक स्वयं को ले जाता है। परिणामतः ऐसे लोलचित्त व्यक्ति को अंततः प्रायः अपनों से हीं तिरस्कार, अपमान, दुःख एवं क्लेश का भागी होना पड़ता है। और यदि संग्रह-परिग्रह भ्रष्टाचार एवं पापाचार से प्रेरित हो तो आश्चर्य नहीं कि उस व्यक्ति को जीवन के सांध्यवेला तक में भी अपने उस दुष्कृत्य की खातिर अंततः दण्डित भी होना पड़े। ऐसे अनेक उदाहरण है जिसका उल्लेख यहां किया जाना कोई आवश्यक नहीं है सिवा इसके कि हम इसे आम घटना समझ कर उस पर कोई खास ध्यान नहीं देते; बल्कि भोगज्वर से पीड़ित उसकी उपेक्षा हीं करते हैं। यह ज्वर उतरता जरूर है लेकिन अधिकांश मामलों में तब तक बहुत देर हो चुका होता है।
मेरी समझ में भोग स्वयं में हेय नहीं है बल्कि भोग के प्रति हमारी वह आसक्ति है जो अधिकांशतः हमारे पतन के हेतुरूप में कार्य करता है।
आसक्ति से हमारा अभिप्राय हमारी उस मनोवृत्ति से है कि जो भौतिक सुख-सुविधा तथा सेवा हमें प्रारब्धवश (अथवा उद्योगवश) प्राप्त है वह अक्षुण्ण हीं नहीं बल्कि उसमें प्रतिपल वृद्धि होती रहे।अनुभव साफ कहता है कि ऐसा सम्भव नहीं है फिर भी हम इस प्रवृत्ति का दास बन काम, क्रोध और लोभ के गह्वर में विलीन हुए जा रहे हैं। इसलिये हम यह कह सकते हैं कि मनुष्य अगर पतनोन्मुख होने से बचना चाहे तो पहले उसे भोग के त्याग करने की आवश्यकता नहीं बल्कि प्रारब्धवश वा उद्योगवश प्राप्त उस भोग के प्रति आसक्ति का त्याग करना आवश्यक हीं नहीं परमावश्यक है।
श्रीमद्भगवद्गीता में त्याग का स्थान साधन के रुप में सर्वोपरि कहा गया है; कारण इसके आश्रय से तत्काल हीं शान्ति प्राप्त हो जाती है।त्याग को अभ्यास, शास्त्रज्ञान, ध्यान इन सभी से श्रेष्ठ माना गया है। त्याग से तात्पर्य कर्मफल की इच्छा के त्याग से है।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्याच्छान्तिरनन्तरम।।
(श्रीमद्भगवद्गीता, 12/12)
सोचिये जहां गीताजी कर्मफल की इच्छा का त्याग करने के लिये कहती है वहीं हम आसक्ति का भी त्याग नहीं कर पाते हैं।
त्यागजन्य शांति एवं सुख के महत्व को दर्शाने के प्रयोजनार्थ इसे इस लेखन का Anticlimax हीं कहा जायेगा जब हमें यह लिखना पड़े कि व्यक्ति को मल-मूत्र के त्याग जैसी दैहिक क्रिया से जब सुख की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है तो कर्मफलत्याग से प्राप्त होने वाली शांति का स्वरूप एवं परिमाण क्या होता होगा! निश्चितरूप से वह एक योगसाध्य अनिर्वचनीय अवस्था है।
इसलिये यदि कम से कम इस आसक्ति का त्याग हो जाय तो यह व्यक्ति का उसके स्वयं के प्रति सबसे बड़ी सेवा है जो उसके जीवन को विलक्षण रूप से आगे के लिये मूल्यवान बना देती है।
शेष भगवत्कृपा.
राजीव रंजन प्रभाकर,
११.०८.२०१९.
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