सर्वधर्मान्परित्यज्य.
उपर्युक्त शीषर्क श्रीमद्भगवद्गीता के अंतिम अध्याय का ६६वां श्लोकांश है जो पूर्ण में निम्नवत है -
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
प्रायः उपरोक्त श्लोक की विवेचना सत्संग में जहां भगवान् और भक्त के सम्बंध में चर्चा हो रही होती है, की जाती है।
भगवान् युद्धभूमि में भी मोह और विषाद से दग्ध अर्जुन को सब कुछ बता चुके थे।वे आत्मा की अमरता, शरीर की नश्वरता, कर्मबंधन से छुटकारा हेतु कर्तव्यकर्म की अनिवार्यता, ज्ञान, कर्म, भक्ति, त्याग तथा सन्यासादि विषयक तत्वों पर व्यापक रूप से प्रकाश डाल चुके थे। यहां तक कि अपनी विभूतियों के विषय में भी सोदाहरण बताने के तदनन्तर अपना विराट रूप सहित चतुर्भुज रूप से भी अर्जुन को दर्शन करा चुके थे भगवान्। अनेक प्रकार से समझाने पर भी अंत में सारांशरूपेण उन्होंने अर्जुन से यही कहा कि तुम सभी आश्रय को छोड़ एकमात्र मेरी शरण में आ जाओ, मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा। कहीं भटकने की आवश्यकता नहीं है। न हीं क्या कर्म है, क्या अकर्म है क्या विकर्म है इत्यादि जो तत्वज्ञ तक को मोहित करनेवाले हैं, पर जरूरत से ज्यादा सोचने की आवश्यकता नहीं है। सर्वगुह्यतम बात जो मैने अभी तक तुझसे नहीं कहा था वह ये कि मनुष्य को अपने सम्पूर्ण शुभारंभ कर्मों को करने का उद्देश्य मेरी शरण में आने के लिये हीं होना चाहिये। इसलिये तुम मेरे मनवाला होकर तूं मुझे हीं अपने कर्तव्य कर्मों के अनुसार भज। मैं यह परम गोपनीय तत्व तुम्हें इसीलिए कहता हूँ कि तूं मुझे अत्यंत प्रिय है।
मेरे विचार से उपर्युक्त श्लोक को 'कर्मसारांशयोग' कहना उपयुक्त होगा जिसकी परिणति शरणागति है।
तात्पर्य यह कि हमें अपने सभी उद्योग अपने सम्पूर्ण सामर्थ्य और उत्साह से तो करना चाहिये किन्तु आश्रय एकमात्र करूणावरूणालय सर्वसमर्थ भगवान् का हीं लेना चाहिए। यही सच्ची शरणागति है। शरणागति का भाव सच्चा होने पर भक्त निश्चिंत होकर अपना कार्य करे। उसकी सफलता या असफलता का दायित्व भगवान् अपने उपर ले लेते हैं। उसके सारे कर्म इस प्रकार भगवन्निष्ठ होकर उसके कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं। फिर न शोक शेष रहता है न अफसोस न हीं किसी तरह का कोई क्लेश या भय। सभी कर्म स्वयमेव उनकी प्रेरणा से संचालित होते रहते हैं। यत्र तत्र भ्रमणशील बिल्ली के मुंह में उसका बच्चा जैसे निश्चिंत होकर कौतूहलनिवृत्ति भाव से दुनिया देखता रहता है उसी प्रकार भक्त भी शरणागत होकर प्रभु की लीला का दर्शन करे। जहां तक उसके योगक्षेम का प्रश्न है उसका प्रबंध करना भगवान् की जिम्मेदारी हो जाती है। बल, बुद्धि और अभिमान का आश्रय अनन्यता में प्रमुख बाधा है। उस स्तर का अनन्यता का भाव हममें रहता हीं नहीं न हमें ईश्वर के प्रति उस स्तर का श्रद्धा-विश्वास रहता हैै। फलस्वरूप कौतूहलनिवृत्ति के बदले भगवान् को कदम कदम पर परखने का हीं भाव पालने लगते हैं। हम सभी जानते हैं कि जैसा भाव भीतर होगा उसका बाहर वैसा हीं प्रभाव होता है।
इसलिए हमें तो सिर्फ अनन्यभाव से भगवान् की कृपा पर आश्रित रहते हुए उपस्थित कर्तव्य को अपने बल एवं विवेक के सदुपयोग से पूरा कर फिर अपने स्वरूप में स्थित हो जाना है। अपने स्वरूप में स्थित होने का अर्थ मेरे विचार से यही है कि कर्म के कुशलता पूर्वक सम्पन्न होने के पश्चात चित्त पूर्व की अवस्था को प्राप्त हो जाय, नये संकल्प विकल्प का उदय न हो, कर्म करने के प्रति न राग रहे न हीं द्वेष तथा कर्म न करने के प्रति भी कोई आग्रह-दुराग्रह न रहे। इसलिये हमें कोई कार्य इसलिये और इस भाव से करना चाहिये कि आगे कोई उक्त कार्य से नवीन कामना न जन्म लेने पावे। जब तक कार्य करने से आगे कामना जन्म लेता रहे समझना चाहिये कि कर्म अद्यतन अपनी कुशलता को प्राप्त नहीं हुआ है।
शरणागत को न तो ज्ञान से मतलब है न हीं अपने स्वरूप के अनुसंधान से कोई प्रयोजन। उसे यदि कुछ करना अभीष्ट है तो बस यही कि वह जो करता, जो खाता है, जो देखता है, जो कर्तव्य रूप से करता है या देता है वह सर्वतोभावेन भावग्राही भगवान् को अर्पित कर दे।कारण भगवान् भावग्राही हैं;क्रियाग्राही नहीं। वे तो यहां तक कह दिये कि जो भक्त यथाशक्ति किंतु भावपूर्ण जो पत्र, पुष्प, फल या फिर मात्र जल हीं अर्पित करता है उसे मैं प्रेमपूर्वक खा लेता हूँ।
ऐसा व्यक्ति अपने कर्मों से कदापि नहीं बंधता है। और जीते जी सभी कर्मों को करते हुये भी कर्मंपाश से न बंधना हीं तो मोक्ष है!
राजीव रंजन प्रभाकर,
१८.०८.२०१९.
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
प्रायः उपरोक्त श्लोक की विवेचना सत्संग में जहां भगवान् और भक्त के सम्बंध में चर्चा हो रही होती है, की जाती है।
भगवान् युद्धभूमि में भी मोह और विषाद से दग्ध अर्जुन को सब कुछ बता चुके थे।वे आत्मा की अमरता, शरीर की नश्वरता, कर्मबंधन से छुटकारा हेतु कर्तव्यकर्म की अनिवार्यता, ज्ञान, कर्म, भक्ति, त्याग तथा सन्यासादि विषयक तत्वों पर व्यापक रूप से प्रकाश डाल चुके थे। यहां तक कि अपनी विभूतियों के विषय में भी सोदाहरण बताने के तदनन्तर अपना विराट रूप सहित चतुर्भुज रूप से भी अर्जुन को दर्शन करा चुके थे भगवान्। अनेक प्रकार से समझाने पर भी अंत में सारांशरूपेण उन्होंने अर्जुन से यही कहा कि तुम सभी आश्रय को छोड़ एकमात्र मेरी शरण में आ जाओ, मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा। कहीं भटकने की आवश्यकता नहीं है। न हीं क्या कर्म है, क्या अकर्म है क्या विकर्म है इत्यादि जो तत्वज्ञ तक को मोहित करनेवाले हैं, पर जरूरत से ज्यादा सोचने की आवश्यकता नहीं है। सर्वगुह्यतम बात जो मैने अभी तक तुझसे नहीं कहा था वह ये कि मनुष्य को अपने सम्पूर्ण शुभारंभ कर्मों को करने का उद्देश्य मेरी शरण में आने के लिये हीं होना चाहिये। इसलिये तुम मेरे मनवाला होकर तूं मुझे हीं अपने कर्तव्य कर्मों के अनुसार भज। मैं यह परम गोपनीय तत्व तुम्हें इसीलिए कहता हूँ कि तूं मुझे अत्यंत प्रिय है।
मेरे विचार से उपर्युक्त श्लोक को 'कर्मसारांशयोग' कहना उपयुक्त होगा जिसकी परिणति शरणागति है।
तात्पर्य यह कि हमें अपने सभी उद्योग अपने सम्पूर्ण सामर्थ्य और उत्साह से तो करना चाहिये किन्तु आश्रय एकमात्र करूणावरूणालय सर्वसमर्थ भगवान् का हीं लेना चाहिए। यही सच्ची शरणागति है। शरणागति का भाव सच्चा होने पर भक्त निश्चिंत होकर अपना कार्य करे। उसकी सफलता या असफलता का दायित्व भगवान् अपने उपर ले लेते हैं। उसके सारे कर्म इस प्रकार भगवन्निष्ठ होकर उसके कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं। फिर न शोक शेष रहता है न अफसोस न हीं किसी तरह का कोई क्लेश या भय। सभी कर्म स्वयमेव उनकी प्रेरणा से संचालित होते रहते हैं। यत्र तत्र भ्रमणशील बिल्ली के मुंह में उसका बच्चा जैसे निश्चिंत होकर कौतूहलनिवृत्ति भाव से दुनिया देखता रहता है उसी प्रकार भक्त भी शरणागत होकर प्रभु की लीला का दर्शन करे। जहां तक उसके योगक्षेम का प्रश्न है उसका प्रबंध करना भगवान् की जिम्मेदारी हो जाती है। बल, बुद्धि और अभिमान का आश्रय अनन्यता में प्रमुख बाधा है। उस स्तर का अनन्यता का भाव हममें रहता हीं नहीं न हमें ईश्वर के प्रति उस स्तर का श्रद्धा-विश्वास रहता हैै। फलस्वरूप कौतूहलनिवृत्ति के बदले भगवान् को कदम कदम पर परखने का हीं भाव पालने लगते हैं। हम सभी जानते हैं कि जैसा भाव भीतर होगा उसका बाहर वैसा हीं प्रभाव होता है।
इसलिए हमें तो सिर्फ अनन्यभाव से भगवान् की कृपा पर आश्रित रहते हुए उपस्थित कर्तव्य को अपने बल एवं विवेक के सदुपयोग से पूरा कर फिर अपने स्वरूप में स्थित हो जाना है। अपने स्वरूप में स्थित होने का अर्थ मेरे विचार से यही है कि कर्म के कुशलता पूर्वक सम्पन्न होने के पश्चात चित्त पूर्व की अवस्था को प्राप्त हो जाय, नये संकल्प विकल्प का उदय न हो, कर्म करने के प्रति न राग रहे न हीं द्वेष तथा कर्म न करने के प्रति भी कोई आग्रह-दुराग्रह न रहे। इसलिये हमें कोई कार्य इसलिये और इस भाव से करना चाहिये कि आगे कोई उक्त कार्य से नवीन कामना न जन्म लेने पावे। जब तक कार्य करने से आगे कामना जन्म लेता रहे समझना चाहिये कि कर्म अद्यतन अपनी कुशलता को प्राप्त नहीं हुआ है।
शरणागत को न तो ज्ञान से मतलब है न हीं अपने स्वरूप के अनुसंधान से कोई प्रयोजन। उसे यदि कुछ करना अभीष्ट है तो बस यही कि वह जो करता, जो खाता है, जो देखता है, जो कर्तव्य रूप से करता है या देता है वह सर्वतोभावेन भावग्राही भगवान् को अर्पित कर दे।कारण भगवान् भावग्राही हैं;क्रियाग्राही नहीं। वे तो यहां तक कह दिये कि जो भक्त यथाशक्ति किंतु भावपूर्ण जो पत्र, पुष्प, फल या फिर मात्र जल हीं अर्पित करता है उसे मैं प्रेमपूर्वक खा लेता हूँ।
ऐसा व्यक्ति अपने कर्मों से कदापि नहीं बंधता है। और जीते जी सभी कर्मों को करते हुये भी कर्मंपाश से न बंधना हीं तो मोक्ष है!
राजीव रंजन प्रभाकर,
१८.०८.२०१९.
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