ये साधनधाम शरीर.

मेरे हाथ में लेखनी है। इसकी क्या उपयोगिता है? यही न कि ये हमारे लिखने के काम आती है? मोबाइल है, इसका उपयोग हम एक दूसरे से बातचीत या ऐसी हीं और कई सुविधाएं जो यह प्रदान करती है, के वास्ते करते हैं। विचारने पर सहज ही यह समझ में आ जाता है कि निर्जीव कलम या मोबाइल की अपने आप में कोई सत्ता नहीं है, जब तक इससे लिखा न जाय, इसकी सहायता से बोला न जाय, इसका क्या उपयोग! थोड़ी देर के लिए अगर मान लिया जाय तो सत्ता है उस कलम से लिखनेवाले की, उस मोबाइल की सहायता से बोलनेवाले की जो इस कलम को या मोबाइल को श्रेय दिलाती है जब हम सुनते हैं कि फलां तो कलम के सिपाही हैं या वे तो ठहरे कलम के जादूगर! अस्तु।
यह भी कि यह कलम या मोबाइल मेरे पास हमेशा नहीं रहेगी, इसलिये जब तक यह हमारे स्वत्व या अधिकार में है हम इसका उत्तम उपयोग करें यही प्रायः हमारा उद्देश्य होता है। जहां इनका सदुपयोग हमें समाज में सफलता या प्रतिष्ठा दिलाता है वहीं इनका दुरुपयोग या असावधानीपूर्वक किया गया उपयोग हमें लोकनिंदा या कभी कभी दंड का भी पात्र बना देता है।
उसी तरह हमें यह भी सोचना होगा कि इस शरीर की क्या उपयोगिता है? क्या यह भगवान् की अहैतुकी कृपा नहीं जो यह शरीर हमें बिना मांगे मिल गया है? यह मेरे साथ कितने समय तक रहेगा? जितने समय तक यह रहेगा क्या वह वैसा हीं रहेगा? यदि नहीं तो यह जब तक हमारे साथ है, पास है, इसके साथ हम क्या करें? इसे कैसे निरंतर उपयोगी बनाये रखें? इसे किस काम में लावे एवं कैसे लावें, मनोद्योग कैसा हो जिससे चित्त सदैव स्वस्थ्य रहे, प्रज्ञा स्थिर रहे, बुद्धि व्यवसायात्मिका हो?
इन सब प्रश्नों का उत्तर खोजना हमारे जीवन को सदगुणमय बनाने में अत्यंत लाभदायक सिद्ध होता है।
विचार कर देखें तो इस शरीर के माध्यम से हीं हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं।
इस शरीर के माध्यम से लौकिक सम्पत्ति की प्राप्ति का उदाहरण देना शरीर के महत्व को बहुत ही कम करके आंकना होगा। परमात्मा तक की प्राप्ति का साधन यह हमारा शरीर हीं है। आवश्यकता है इसे साध्य न समझकर साधन रूप में समझने की। आचार्य शंकर जैसे ब्रह्मविद्याविशारद द्वारा जो शरीर की निंदा की गई है वह इस कारण से कि मोहवश व्यक्ति इस शरीर को हीं आत्मा समझ उसमें अहंता रखने लगता है। शरीर की हीं सत्ता मान संसार में रचा पचा रहता है। भला आत्मारहित शरीर की भी कोई सत्ता हो सकती है? निष्प्राण शरीर और निर्जीव कलम या मोबाइल का अपने आप में क्या मोल? मुक्ति मार्ग की सबसे बड़ी बाधा मोहग्रस्त मनुष्य का शरीर में सत्ताभाव(अहंभाव) रखना है। शंकराचार्य के द्वारा शरीरनिंदा का आशय मेरी समझ में यही है। 'अहंता' जब 'इदंता' में परिवर्तित हो जाती है, शरीर तब साधनरूप से दीखने लगता है। संक्षेप में '(मैं) शरीर हूँ' यह अहंता भाव है और '(यह) शरीर है' - यह इदंता का भाव है। भगवान् श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं-
(इदं)शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।
                          (श्रीमद्भगवद्गीता, १३/१)
स्पष्ट है कि भगवान् ने शरीर को 'इदम' अर्थात 'यह' कह कर सम्बोधित किया जिसका आशय है कि शरीर से अलग कोई सत्ता है। गीताजी के इस अध्याय में शरीर को 'क्षेत्र' और आत्मा को 'क्षेत्रज्ञ' कह कर आत्मा और शरीर के भेद को समझाया गया है। खेत की पहचान खेतिहर से हीं न होती है? खेत में यदि खर-पतवार, घास-सेंवार न रहे तो समझा जा सकता है कि खेती करनेवाला खेत को उपयोगी बनाये हुए है। यदि खेत हीं न रहे तो बीज और नाना प्रकार के उर्वरकों की क्या प्रासंगिकता! शरीर संसार (प्रकृति) का अंश है और आत्मा परमात्मा का अंश। एक (संसार) परिवर्तनशील दूसरा(आत्मा)अविनाशी किन्तु दोनों अनादि। यह स्वाभाविक है कि अंश अपने अंशी को स्वतः खोज लेता है। इसलिये शरीर को संसार के काम में निष्काम भाव से लगा दिया जाय।
यही शरीर की सर्वोत्कृष्ट उपयोगिता है।
गोस्वामी तुलसीदासजी तो इस शरीर को समस्त साधनों के धाम तथा मोक्ष के द्वार की संज्ञा देते हुए कहते हैं कि मनुष्य बड़भागी है जो उसे भगवान्  ने शरीर देकर साधन करने का अवसर प्रदान किया हैं जिससे वह मोक्ष तक प्राप्त कर सकता है। यह शरीर तो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। इसे पाकर भी जो अपना परलोक नहीं संवार पाया उसे बाद में सिवा अफसोस और सिर धुनने के क्या विकल्प रह जाता है। वे कहते हैं -
बड़े भाग मानुष तन पावा।
                    सुर दुर्लभ सदग्रंथन्हि गावा।।
साधनधाम मोच्छ कर द्वारा।
                   पाइ न जेहि परलोक संवारा।।
                                (रामचरितमानस, उत्तरकांड)
इसलिये यह आवश्यक है कि हम अपने शरीर का पोषण सत्कार्य में नियोजित करने के निमित्त हीं करें। आत्मोन्नति का यह तिराहा है जहां से ज्ञान, कर्म और भक्ति का रास्ता निकलता है। कोई साधक अपने रूचि और प्रकृति के अनुसार कोई एक मार्ग पर श्रद्धा और विश्वासपूर्वक चल कर परमात्मा तक को प्राप्त कर लेने के योग्य हो जाता है। जरूरत है अपनाये गये साधन में वह संदेहबुद्धि न रखे और उत्साह से अपने साधन में संलग्न रहे।
शेष भगवत्कृपा।
राजीव रंजन प्रभाकर,
१४.०८.२०१९.

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