बुद्धिमतां वरिष्ठम् वातात्मज हनुमान

भगवान राम का स्मरण हो और उनके परम प्रिय हनुमान की चर्चा न करना यह स्वयं में दोषपूर्ण तो है ही रामानुरागी के लिए असम्भव है।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी कहा है:
    राम दुआरे तुम रखवारे
    होत न आज्ञा बिनु पैसारे।
इसलिए भगवान की शरण की चाहना वाले को तो हनुमान को भजना होगा। गोस्वामीजी कहते हैं -
'तुम्हरे भजन राम को पावै जनम जनम के दुःख विसरावै'।
हनुमानजी स्वयं कहते हैं, 'दासोऽहं कौशलेन्द्रस्य रामस्याः क्लिष्ट कर्मनः'। अगर कोई भगवान राम के चरणों में निवास करने की कामना करता है तो उसे राम द्वार पर नियुक्त प्रहरी हनुमान द्वारा प्रवेशाधिकार की जांच प्रक्रिया से गुजरना हीं होगा। वे निवासकामी का छल-कपट, मान-मत्सर, राग-द्वेष तथा अन्यान्य विषयानुराग की गठरी को उतरवा लेते हैं, तदनन्तर हीं कोई भगवान के दरवार में प्रवेश पा सकता है वह भी सामान के तौर पर कहिये तो एकमात्र luggage रूपी देह के साथ।रामचरण में निवास करने पर वह देहभार से भी अनायास हीं मुक्त हो भगवान के परम धाम में पहुंच उनका सान्निध्य सायुज्य लाभ प्राप्त करता है। उनसे अहैतुकी प्रेम करने वाला तो वह भी नहीं चाहता। वह तो केवल और केवल उनके चरणों में रहकर उन चरणों की हीं सेवा करना चाहता है। अस्तु।
यहां हनुमानजी के सम्बन्ध में पढ़े एवं सुने गये उन कतिपय प्रसंगों की चर्चा करना अपना अभीष्ट है जिसके चलते सहज हीं ग्रंथकारों ने उन्हें ज्ञानीनामअग्रगण्य, सकलगुणनिधान, बुद्धिमतां वरिष्ठम् इत्यादिरूपेण वर्णन कर उनका आदर, सम्मान किया है। फलस्वरूप उनकी रचना सामवेदसदृश फलवती है तथा जिनके आशीर्वादस्वरुप वे कालजयी हो चुके हैं चाहे वे आदिकवि वाल्मीकि(रामायण)हों या भगवान की उपाधि से विभूषित महर्षि वेदव्यास हों (अध्यात्म रामायण) अथवा कविकुलतिलक गोस्वामी तुलसीदास (रामचरितमानस)।
प्रभंजनजाया हनुमान बुद्धिप्रवर हैं। इसके कई प्रसंग रामायण या तुलसीकृतमानस में सुरूचिपूर्वक वर्णित हैं।
पवनपुत्र किसी भी स्थिति में अधीर नहीं दीखते हैं। भगवान जब उनसे जो पूछते हैं उसका वे अत्यंत हीं विनीतभाव से यथामति उत्तर देते हैं जो सर्वथा उपयुक्त तथा देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप होता है।
एक प्रसंग लेते हैं। समुद्र को सेतु से सीमित किये जाने के पश्चात भगवान वानरीसेनासहित लंकापुरी में प्रवेश कर चुके थे तथा वानराधीश सुग्रीव एवं अन्य प्रमुख वानरवीरों से सेवित युद्धोचित मंत्रणा कर रहे थे। उसी समय एक वानर उन्हें यह सम्वाद अर्पित करने के निमित्त उनकी सेवा में उपस्थित हुआ कि लंकेश रावण का अनुज विभीषण भगवान से मिलने की इच्छा से यहां पधारे हैं।
इस समय जब कि दोनो पक्ष युद्धप्रवण हों शत्रुपक्ष का कोई सदस्य वह भी और कोई नहीं स्वयं लंकेश रावण का भाई मिलने आया हो यह बात स्वयं में बड़ी विचित्र एवं अबूझ हो गई। सभा में उपस्थित सभी वानरवीर एवं धीर एक दूसरे को देखने लगे। सभी की मनोदशा को भांप भगवान ने स्वयं सुग्रीव से कहा, "सखे! अभी आपने भी दूत का सम्वाद सुना। लंकापति रावण के कनिष्ठ इस समय मुझसे मिलने की इच्छा से यहां पधारे हैं। आपकी क्या सम्मति है?"
सुग्रीव कहते हैं, "मुझे तो यह शत्रुपक्ष का कूटकृत्य हीं प्रतीत होता है। है तो यह शत्रु का भाई हीं, पता नहीं क्यों अब हमारी सेना में प्रवेश पाना चाहता है। सम्भव है, उल्लू जैसे कौओं का वध कर देता है, वैसे यह हमें भी मार डाले। प्रकृति से राक्षस है, इसका क्या विश्वास? साथ हीं नीति यह है कि मित्र की भेजी हुई, मोल ली हुई तथा जंगली जातियों की भी सहायता ग्राह्य है किन्तु शत्रु की सहायता तो सदा हीं शङ्कनीय है।"
युवराज अंगद ने भी राजा सुग्रीव के मत का हीं अभिनंदन किया।
जामवन्त बोले,"हमें भी इसको अदेशकाल में आया देख बड़ी शङ्का हो रही है।"
शरभ ने कहा, "इस पर गुप्तचर छोड़ा जाय।" अश्विपुत्र मैन्द ने कहा कि इससे प्रश्न-प्रतिप्रश्न किये जायं जिसके उत्तर से इसके भाव जान लिये जायेंगे।
रघुनाथजी सभी के मतों को ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। हनुमान को छोड़ प्रायः सभी ने अपना मत प्रकट कर दिया था। हनुमान अभी तक मौन हीं थे। बुद्धिमान पुरुष की यह विशेषता होती है कि वे सहसा हीं किसी विचारणीय विषय पर अपनी राय देने के लिए आतुर नहीं होते हैं।उनका मन्तव्य उनसे बिना मांगे प्रायः अप्राप्य हीं रहता है। स्वामी या प्रभुत्वसम्पन्न व्यक्ति के सम्मुख ऐसे बुद्धिसम्पन्न व्यक्ति तो विशेषतया उतना हीं बोलते हैं जितना आवश्यक होता है तथा स्वामी के मनोभाव को लक्ष्य कर हीं अपनी बात निवेदित करते हैं। यह कहने और लिखने में जितना सरल प्रतीत होता है उतना वास्तव में है नहीं। यह अनुभवगम्य है कि किस प्रकार हम यदि किसी प्रश्न या समस्या का समाधान जानते हैं तो उसे बताने की हम में कितनी व्यग्रता रहती है। इसका कारण भी कदाचित् स्पष्ट ही रहता है और वह स्वामी या अधिकारसम्पन्न पुरुष की दृष्टि में महत्वपूर्ण या प्रतिष्ठित वा पुरस्कृत होने की लालसा होती है।
महामति हनुमानजी इन सभी लोकेषणा से निर्लिप्त हैं। अस्तु।
हनुमान को मौन देख भगवान उनसे पूछते हैं,"वत्स हनुमान तुम अभी तक मौन हो, इस विषय में तुम्हारी क्या सम्मति है?"
हनुमानजी कहते हैं, "प्रभो! आप सर्वज्ञ हैं, आपके सम्मुख वृहस्पति का भाषण भी तुच्छ है। यह मेरी अल्पज्ञता को हीं प्रदर्शित करती है कि इस विषय में मेरा मत विज्ञजनों द्वारा प्रकट मत से किंचित भिन्न है। भगवन! मैं विवाद, तर्क अथवा स्पर्धावश नहीं वरन् कार्य की गुरुता को देख कुछ निवेदन करना चाहता हूं जिससे हम सुगमता से अपना अभीष्ट प्राप्त कर सकें।
(इससे यह पता चलता है कि बुद्धि का उपयोग सर्वथा कार्य के सिद्धि के निमित्त हीं होना चाहिए न कि इसका प्रयोजन परस्पर तर्क, विवाद या स्पर्धा वा स्पृहा है।)
प्रायः सभी जनों ने प्रकारान्तर से विभीषण के आगमन को शंका की दृष्टि से हीं देखा है।
इनके पीछे गुप्तचर लगाने की अनुशंसा की गई। किन्तु यह तो तब युक्तियुक्त होता जब विभीषण हमसे दूर रहते जिसके फलस्वरूप उनकी योजना की जानकारी हेतु गुप्तचर की परोक्ष सेवा लेना आवश्यक होता। यहां तो वह स्वयं आपके दर्शनार्थ प्रत्यक्ष आया हुआ है। अपना नाम-काम भी स्वयं हीं कह रहा है, यहां गुप्तचर का क्या उपयोग?
उससे उत्तर-प्रत्युत्तर कर उसके भाव का पता लगाने का प्रयास भी मेरी दृष्टि में उचित नहीं होगा। इससे उसका हमारे प्रति जो कदाचित् कोई मैत्री भाव होगा, उसमें आघात हीं पहुंचेगा। उसे हम अदेशकाल में आया हुआ भी नहीं कह सकते। प्रत्युत मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि उसके आगमन का यही ठीक समय है क्योंकि यह तभी आया है जब शत्रुपक्ष का परम मित्र इन्द्रकुमार बाली का बध प्रभु आपके द्वारा किया जा चुका है और जिसके अनुज सूर्यनन्दन सुग्रीव को आप किष्किन्धानरेश के रुप में अभिषिक्त कर चुके हैं।
किष्किन्धानरेश ने जो कुछ विभीषण को लक्ष्य कर कहा है, निश्चय हीं राजनीति वही कहती है, किन्तु नीति से नीयत का पता नहीं चलता है। इस चराचर जगत में जितने भी प्राणी हैं उनके अंतःकरण के अन्तरसाक्षी प्रभु आप हीं हैं।कोई भी अपना भाव कुभाव आपसे छिपा नहीं सकता क्योंकि आपसे अगम्य, आपसे गोपनीय कुछ है हीं नहीं।और लंकेशानुज विभीषण का भाव मुझे निर्दोष जान पड़ता है। यह स्वयं आपकी सेवा में उपस्थित हुआ है।यों तो आप कुछ भी बात करते समय इसके स्वरभेद, आकार, मुखविक्रिया आदि से इसकी मनःस्थिति भांप हीं लेंगे। इसके हमारे दल में शामिल होने से शत्रुपक्ष के बलाबल का ज्ञान हमें सहज हीं प्राप्त हो सकेगा। सुतरां मैने अपनी तुच्छ बुद्धि के अनुसार यह कुछ निवेदन किया, प्रमाण तो आप स्वयं हीं हैं।"
इसके बाद रघुनाथजी के निर्णय के बारे में हम सब जानते हीं हैं कि किस प्रकार उन्होंने सुग्रीवादि की शंका का निवारण यह कहते हुए कर दिया कि जगत में जितने भी निशिचर हैं उनका निमिषमात्र में संहार हेतु अकेले लक्ष्मण हीं पर्याप्त हैं और जो कोई भी भाव से या कुभाव से उनकी शरण में आता है तो शरणागत की रक्षा हीं उनका प्रण एवं धर्म दोनों है इसलिए विभीषण को आदरपूर्वक बुला लिया जाय।
रामायण में जिस स्थल पर हनुमानजी का प्रसंग आता है तो वहां या तो उनकी रामभक्ति दिखती है या फिर उनकी अपूर्व नीतिमत्ता, अप्रतिम बुद्धिमता, सहज सरलता, निरभिमान स्वभाव, विवेकशीलता, विचारकुशलता के हीं दर्शन होते हैं। उनके परामर्श से हीं सुग्रीव जो राज पाकर मद एवं भोग में लिप्त हो भगवान के काज को बिसार चुके थे, पुनः चेते। वे अतुलनीय बल के स्वामी होने के साथ हीं बुद्धि तथा विवेक का प्रयोजन सिद्धि के प्रयोजनार्थ समयोचित उपयोग करने में दक्ष हैं। चाहे युक्ति से सुरसा के मुख में प्रवेश कर निकलना हो या लंका पहुंच नगर में अत्यंत लघुरूप धारण कर मंदिर मंदिर घूम माता सीता को खोजना हो, विभीषण से रुप बदल कर मिलना हो ये सभी कार्य बिना विलम्ब के इतनी दक्षता से करते हैं कि राक्षसनगरी में किसी को आभास तक नहीं होता। शत्रुरक्षित दुर्ग में उपयुक्त समय को देख माता सीता के समक्ष उपस्थित होना और उन्हें प्रभु का कुशलक्षेम बताना साथ हीं अपनी निष्कपट तथा मनोहर वाणी से माता का विश्वास भी प्राप्त करने में सफल होना आदि उनकी बुद्धिप्रवरता के उत्कट प्रमाण हैं। बाग- विध्वंस, अक्ष बध, प्रभुकार्यार्थ ब्रह्मास्त्र से बंध जाना , लंका दहन इत्यादि अपने क्रियाकलाप से शत्रुपक्ष में पहले हीं भय, आतंक एवं अनिष्ट की आशंका उत्पन्न कर देना सभी यही सिद्ध करते हैं कि हनुमानजी बलवान तो हैं हीं बुद्धिनिधान भी हैं।
हनुमानजी प्रसन्न तो रघुनाथजी प्रसन्न।
विशेष क्या कहा जाय।

राजीव रंजन प्रभाकर
04.02.2019

 

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