देहोत्पत्ति:अध्यात्मिक दृष्टिकोण से

मनुष्य का जन्मजन्य देहधारण उसके पूर्वकर्म का हीं परिणाम है। विचार से देखा जाय तो सुख दुःख का संघातक्षेत्र तथा आश्रय यह देह हीं है, आत्मा नहीं। इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता में शरीर एवं आत्मा का विवेचन क्रमशः क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के रूप में विभागवार भगवान ने किया है।
अध्यात्मरामायण के किष्किन्धाकांड में वर्णित सम्पाति की आत्मकथा का आश्रयलेकर जीव के देहधारण की व्याख्या की जा रही है। इसे गृध्रराज सम्पाति को चन्द्रमा मुनि ने प्रबोधित किया था।
प्रसंग उस समय का है जब वानरराज सुग्रीव से आदिष्ट होकर वीरवानरगण चतुर्दिक दल बान्ध कर माता सीता की सुधि प्राप्त करने हेतु अन्वेषण में तत्पर थे। इसी क्रम में राजा सुग्रीव द्वारा दक्षिण दिशा में प्रेषित अन्वेषण दल का नेतृत्व युवराज अंगद कर रहे थे।  प्राणपण प्रयत्न के उपरांत भी जब वे सभी माता सीता का पता नहीं लगा सके तो दलपति अंगद सहित सभी वानर अत्यंत दुःखी हो समुद्रतट पर बैठ चिन्तातुर हो आपस में कहने लगे कि भाई अब तो हम सभी के प्राण संकट में हैं। हो भी क्यों न, महाराज सुग्रीव द्वारा इस हेतु दी गई अवधि भी समाप्त होने जा रही है और हम लोग को अब तक कोई सफलता नहीं मिली है, बिना कोई जानकारी के यदि हमलोग लौटैंगे तो प्राणदण्ड तो निश्चित हीं है। युवराज अंगद कहते हैं, 'मुझे तो यह निष्ठुर सुग्रीव सबसे पहले मार डालेगा, वह बड़ा हीं दुर्दण्ड है। पिता के बध के बाद मैं तो उसके लिए सहज हीं चक्षुकंटक था । वह तो भगवान राम का हीं प्रताप है जिसके चलते मैं अब तक उसके कोप से बच रहा हूँ, अन्यथा वह निर्दय तो मेरे पिता के वध के बाद मेरा भी वध कर हीं डालता। आज भगवान राम का मेरे ऊपर उनकी कृपादृष्टि हीं कहो कि मैं जीवित हूँ किन्तु दुर्भाग्य मैं अधम उनके कोई काम न आ सका। मैने तो भाई सोच लिया है कि यहीं सिन्धुतट पर मैं प्राण त्याग दूंगा, खाली हाथ लौटने पर कौन उस दुष्ट का सामना मृत्युदण्ड से तो करे हीं उसके दुर्वचन से भी करे। हा! जटायु, तुम कितने भाग्यशाली थे जो तुमने प्रभु के कार्यार्थ अपने प्राण को भी उनकी सेवा में अर्पित कर डाला। मित्र मैं भी यही करूंगा क्योंकि भगवान का कार्य हमसे न बन पाया। सबका अपना अपना भाग्य है, हमारे भाग्य में इस सुयश का भागी होना नहीं लिखा था।'
खेदखिन्न अंगद यह कह हीं रहे थे कि एक विशालकाय किन्तु पक्षहीन गीद्ध धीरे धीरे वानर मंडली के समीप आ पहुंचा और बोला,' मैं सम्पाती हूँ, जटायु का ज्येष्ठ भ्राता, आप अभी जटायु नामक गीद्ध की चर्चा कर रहे थे, सो कृपा करके बताइये कि उसके साथ क्या हुआ तथा उसने किसलिये अपने प्राण त्याग कर दिए। जटायु मेरा छोटा भाई था। कृपया दया करके सारी कथा मुझे बुझा कर कहिये।'
सम्पूर्ण वृत्तांत सुनने के पश्चात सम्पाति ने जटायु का और्ध्वदैहिक संस्कार विधि एवं श्रद्धापूर्वक सिन्धु में जलांजलि के साथ सम्पन्न कर अपनी जो कथा सुनाई, वह तत्वानुरागी के लिए विशेष प्रयोजन का हो सकता है।
गृध्रराज सम्पाति कहते हैं कि जब वे और जटायु युवा एवं बलशाली थे तो यौवन के उन्मादवश दोनों भाइयों के बीच होड़ मची कि सूर्य के समीप पहुंचा जाय, हम जैसे बलवान के लिए यह बात हीं कौन सी बड़ी है।
कई सहस्त्र योजन सूर्याभिमुख उड़ने के बाद जब सूर्य का तेजोतप्त प्रकाश से दोनों का शरीर जब झुलसने लगा तो जटायु तो लौट आया किन्तु मैं अहंकार के वशीभूत उपर उड़ता हीं गया। अंत में मैं सूर्य के प्रचण्ड तेज से संज्ञाशून्य हो जिस गिरि पर गिरा तो होश आने पर मैने पाया कि मेरे दोनो पंख जल चुके हैं और मैं पूरी तरह से निःशक्त एवं लाचार हो गया तथा हे युवराज अपनी दुरवस्था पर शोकदग्ध मैंने आपकी तरह हीं प्राण त्यागने का विचार कर लिया था किन्तु प्रारब्धवश वहीं एक मुनि का आश्रम था जिन्होंने मुझ पर दया कर मेरी देखभाल तो की हीं साथ हीं मुझे समझाया भी।
मुनिवर का नाम चन्द्रमा था जिन्होंने मुझसे कहा, " बच्चा तू शोक मत कर, पहले मेरी बात सुन तत्पश्चात जो उचित प्रतीत हो वही करना। यह देह हीं हमारे समस्त दुःख एवं सुख का आश्रय है। इस देह की उत्पत्ति वीर्य और रज के संयोग का परिणाम है।अविद्याजनित अहंकार का देह से तादात्म्य होने से हीं व्यक्ति में कर्म की प्रवृत्ति का उदय होता है। इसी शुभाशुभ प्रवृत्ति से परिचालित होकर नानाविध कर्म करता हुआ व्यक्ति अपने मृत्यु के पश्चात प्रारब्ध का भोग स्वर्ग वा नरक में करता है जहां उसके पुण्य या पापक्षय होने पर शेष प्रारब्ध कर्म भोगने हेतु उसे वहां से परावर्तित होना पड़ता है।
इस प्रकार प्रारब्ध कर्म के भोग हेतु जीव को पुनः इस मृत्युलोक में आना पड़ता है। इसके लिए वह जीव पहले चन्द्रमण्डल पर गिरता है। वहां से चंद्ररश्मियों(कुहरे) के सहारे इसका भूमण्डल पर पुनः आगमन होता है जहां वह पहले व्रीहि धान्यादि के रुप में धरित्री पर पोषित होता है। इसी का भक्षण चर्व्य, चोष्य, लेह्य एवं पेय के रूप में किये जाने के अनन्तर रज एवं वीर्य का पुनः निर्माण होता है। वीर्य का रज के साथ निषेचन की परिणति को कलल कहा गया है जो एक रात्रि के अनन्तर झिल्ली से आवृत एक कठिन बिन्दुमात्र होता है। यही गर्भ कहलाता है जिसका आश्रय  प्रकृतिस्वरूपा स्त्री का गर्भाशय है।
कालक्रम से  माता द्वारा प्राप्त किये गये अन्न जल से हीं इस गर्भ का आहार नाल से पोषण और परिवर्धन होता है। पांच रात्रि में यह बुदबुदाकार तथा सात रात्रि में  अंडाकार हो जाता है। पन्द्रह रात्रि के अनन्तर यह रुधिरयुक्त होकर मांसपेशी सदृश पिण्ड के रूप में परिवर्तित हो जाता है एवं पच्चीस रात्रि में यह अंकुरित होने लगता है जिसके फलस्वरूप मासान्त तक इसमें सबसे पहले पांच अंग यथा ग्रीवा, सिर, कन्धे, रीढ़ की हड्डी तथा पेट क्रम से बनते हैं। गर्भधारण के दो महीने की अवधि में हाथ, पांव, पसलियां, कमर एवं घुटने का बनना शुरू हो जाता है। तीन महीने में अंगों की संधियां तथा चार महीने में इसमें अंगुलियां उत्पन्न हो जाती हैं। पांचवें महीने में इस देहपिण्ड के सिर में नाक, कान एवं नेत्र उत्पन्न तथा विकसित होने लगते हैं तथा गुह्य स्थानों का निर्माण भी इसी अवधि में होने लगता है। गर्भधारण का पांचवां महीना इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि इसी समयान्तराल में देह का जीव से संयोग होता है क्योंकि यही देह में चेतना का प्रवेशकाल है। छठे महीने में इस देहपिण्ड में पायूपस्थ विकसित एवं लिंग का निर्धारण हो चुका होता है। गर्भवास की शेषावधि यह चेतना सम्पन्न लिंगदेह अपने पूर्व जन्म-जन्मांतर का स्मरण करता हुआ भीषण कष्टों को सहता भगवान को आर्त स्वर में पुकारता रहता है कि हे नारायण मैने अपने पूर्व के जन्मों में मदान्ध होकर आपको सदा हीं भुलाए रखा, मैने कभी स्तोभ से भी कभी आपका नाम नहीं लिया, सदैव स्वार्थसाधन तथा कुटुम्बपोषण में लीन रहकर नाना प्रकार के अपकर्म/पापकर्मों को हीं करता रहा। इसी का परिणाम है कि आज मैं यह भीषण गर्भदुःख भोग रहा हूँ। प्रभु मुझे किसी तरह इस योनियंत्र से निकालिये, असहनीय पीड़ा हो रही है, प्रभु उबारिये। मैं इस जन्म में अब वह गलती कदापि नहीं करूंगा जिसके चलते मेरी यह गति हो रही है।
यही चिन्ता, शोक और पश्चाताप करते करते वह जीव इस तरह देहधारण कर भगवान के अनुग्रह से हीं योनिमार्ग से निकलकर दुर्गन्धयुक्त व्रणकीट की भांति भूमि पर गिरता है जिसे लौकिक भाषा में जीव का जन्म कहा गया है।
किन्तु हे सम्पाति, इसे नारायण की माया हीं समझना चाहिए कि जन्म के उपरांत जीव जिसे गर्भवास काल में पूर्वजन्म के समस्त शुभाशुभ कर्माकर्म का स्मरण रहता है जन्म लेने के साथ हीं उसकी विस्मृति हो जाती है। उसके बाद उसे वर्तमान जन्म के बालावस्था तथा युवावस्था एवं जरावस्था के दुःखों का सामना करना पड़ता है जिसमें पौगण्डकाल एवं यौवनकाल के अज्ञानजन्य सुख-दुःख आदि का तुम अनुभव कर हीं चुके हो।
इसलिए गृध्रराज इस समस्त सुख दुःख का आश्रय यह लिंगदेहाभिमानी शरीर हीं है न कि आत्मा। आत्मा को तू अजन्मा एवं प्रकृत्यातीत जान। इसलिए व्यक्ति को चाहिये कि इस लिंगदेह शरीर में मोहाभिमान छोड़ मात्र आत्मा का हीं ध्यान करे फिर काल के प्रवाह में यह शरीर रहे या जाय इससे आत्मज्ञानाभिलासी का क्या प्रयोजन! यह देह हीं है जो जन्मता है फिर मरता है। यह जन्म मरण का चक्र चलता रहता है जिसका कि वर्णन मैने अभी तुझसे किया है।
और सुन, त्रेता युग में रावण के उद्धार हेतु जब नारायण
मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रूप में इस धरा पर अवतरित होंगे और अपनी प्रकृतिस्वरुपा भार्या सीता का अपहरण किये जाने के मिस से सीताजी का पता लगाने में असफल रहने के चलते सिन्धुतट पर शोकमग्न वानरगण को तुम सीताजी का पता बता देना क्योंकि गीध की दृष्टि बहुत हीं दूर तक होती है। ऐसा करने पर तुम्हें अथाह संतोष एवं सुख मिलेगा और तुम्हारे दोनों पंख नये निकल आयेंगे। यदि मेरी बात का तुझे विश्वास हो तो तब तक तूं इस शरीर को धारण किये रह जिस प्रकार सांप केचुली को तब तक धारण किये रहता है जबतक उसे नवीन त्वचा की प्राप्ति नहीं हो जाती है। शेष नारायणेच्छा।"
यह कह गृध्रराज ने अंगद से कहा," युवराज, दुःखी मत हो। दुष्ट रावण ने सीताहरण कर माता सीता को शतयोजनपरिमित सिन्धु के पार स्थित अपनी स्वर्णपुरी लंका में कठिन पहरे में बिठा रखा है, तुम ये नहीं देख सकते, किन्तु हम गीध की दृष्टि का पारावार नहीं है। मैं जो कह रहा हूँ उसे बिना प्रयास के हीं देख रहा हूँ। इसलिए माता सीता का पता लगाने का अब उपक्रम छोड़ यह सोचो कि इस समुद्रोल्लंघन में तुममें से कौन समर्थ है।"
यह कहते कहते सम्पाति ने आश्चर्य से देखा कि उसके नवीन पंख निकल आये हैं और इससे वह अभिभूत परमात्मा राम की वंदना करने लगा।
अध्यात्मरामायण का आश्रय पाकर अपनी लेखनी को पवित्र करने के मिस से हीं जो यह देहोत्पत्ति का प्रसंग किंचित बखान के कहा गया है, उसे ज्ञानीजन क्षमा करेंगें।

        राजीव रंजन प्रभाकर
            14.09.2018
         

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