किमध्यात्मं?


अध्यात्म शब्द को एकदम से सूत्ररूपेण परिभाषित करना वैसे तो कठिन है किन्तु श्रीमद्भगवद्गीता का आश्रय लेकर कुछ कहने की चेष्टा की जा रही है। असल में यह चेष्टा भी स्वयं को स्वयं से समझने एवं समझाने के प्रयोजनार्थ हीं है। गीता में भगवान ने स्वयं इस सम्बन्ध में अर्जुन को बताया है जब अर्जुन ने उनसे पूछा कि
           * ब्रह्म क्या है,
           * अध्यात्म क्या है,
           * कर्म क्या है तथा
           * अधिभूत एवं अधिदैव किसे कहा गया है तथा अधियज्ञ क्या है।
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरूषोत्तम।
अधिभूत च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते     ।। (8/1)
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन    ।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ।। (8/2)

भगवान अर्जुन के उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर इस तरह देते हैं -
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसञ्ज्ञितः।। (8/3)
अधिभूतं क्षरो भावः पुरूषश्चाधिदैवतम् ।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर      ।। (8/4)

               परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते
    अर्थात् अध्यात्म स्वभाव की उच्चतम अवस्था है। अगर कोई व्यक्ति अपने भक्ति अथवा ज्ञानरूपी साधन का आश्रय लेकर अपने स्वयं के भाव को इतना उन्नत कर ले जिससे कि सम्पूर्ण जगत हीं उसके लिये भगवन्मय अथवा ब्रह्ममय हो जाय एवं उपस्थित दृश्यप्रपंच उस परमात्मा की लीलामात्र लगे तो समझा जाता है कि वह आत्म से अध्यात्म की ओर है क्योंकि आत्म की उपरोक्त साधनों में से किसी एक के सहारे विस्तारित अवस्था हीं अध्यात्म है। अध्यात्म अनित्य को अनित्य में तथा नित्य को नित्य में विलीन करने की समझदारी एवं सामर्थ्य उत्पन्न करता है। जिसका आदि, मध्य और अन्त न हो वह नित्य है, शाश्वत है। इसके विपरीत जो नश्वर है, अनित्य है। चिन्तन से पता चलता है कि इस जगत में सब कुछ नश्वर है, स्वयं जगत भी, अपना यह शरीर भी। एक परमात्मा हीं सत्य हैं, शाश्वत है शेष काल का प्रवाह मात्र है।
        विनयावनत
    राजीव रंजन प्रभाकर
      14.07.2018

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