जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, उपरोक्त का आशय चार साधनों के समूह से है. ये कौन से साधन हैं जो मनुष्य को बन्धन से मुक्त करते हैं-इसे आचार्य शंकर ने स्वरचित ग्रंथ 'विवेक-चूड़ामणि' मे...
आम बोलचाल में तो नहीं किन्तु विद्वतमंडली में शास्त्रचर्चा के समय अपने तर्क के समर्थन में अथवा किसी विषय विशेष पर अपना आग्रह, समानता, दृष्टांत या निदर्शना हेतु कतिपय लोकरूढ़ नीतिवाक्य की सहायता ली जाती है। ऐसे हीं कुछ लोकरूढ़ नीतिवाक्यों को पाठकों के प्रसंगानुकूल उपयोग के लिए संग्रह करके नीचे रखा गया है। १. अंधचटकन्याय : जब अपात्र व्यक्ति को कुछ कीमती वस्तु अनायास प्राप्त हो जाता है तो हम सहसा हीं कह बैठते हैं - अंधे के हाथ बटेर लग गया। अंधचटकन्याय यही है। २. अंधपरम्परान्याय :- जब लोग बिना विचारे दूसरों का अंधानुकरण करने लगते हैं। ३. अरूंधती दर्शनन्याय - ज्ञात से अज्ञात का पता लगाना। ४. अशोकवनिका न्याय - रावण ने सीता को अशोक वाटिका में रखा था, परन्तु उसने और स्थानों को छोड़ इसी वाटिका में क्यों रक्खा, इसका कोई विशेष कारण नहीं बताया जा सकता। अर्थात सारांश यह कि जब मनुष्य के पास किसी कार्य को सम्पन्न करने के अनेक साधन प्राप्त हों, तो यह उसकी अपनी इच्छा है कि वह चाहे किसी साधन को अपना ले। ऐसी अवस्था में किसी भी साधन को अपनाने का कोई विशेष कारण नहीं दिया जा सकता। ५. अश्मलोष्टन्याय -...
यह निश्छल प्रेम और समर्पण हीं है जिसके वशीभूत होकर भगवान् अपनी समस्त मान-मर्यादा को त्याग अपने भक्त के मान की रक्षा के लिए कुछ भी करने को आतुर हो उठते हैं. भक्त के प्राण,मान, प्रतिष्ठा और टेक की रक्षा में वे अपना कुछ भी ख्याल नहीं रखते हैं. ऐसा हो भी क्यों न! आखिर भक्त भगवान् का हीं तो अंश है! भक्त और भगवान् का वही सम्बंध है जो अंश और अंशी का है. इस तरह अंशी यदि अपनी महिमा का विस्तार अंश की रक्षा के लिए करे तो यह सर्वथा अनुकूल बात हीं कही जायेगी. तभी कहा गया है - प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर प्रभु का नियम बदलते देखा। अपना मान भले टल जाय भक्त का मान न टलते देखा।। जी हाँ; भगवान् की प्राप्ति न ज्ञान से, न ध्यान से, न यज्ञ से न दान से सम्भव है;यदि यह सम्भव है तो एकमात्र उनके प्रति समर्पित प्रेम से. अर्जुन का भगवान् के प्रति प्रेम हीं था जिसके वशीभूत हो उन्होंने अर्जुन को अपना दुर्लभ चतुर्भुजरुप तक का दर्शनलाभ प्रदान कर दिया. वरना जन्म-जन्मान्तर तक की तपस्या से भी क्या कोई इनके चतुर्भुजरुप का दर्शन बिना इनकी कृपा के प्राप्त कर सकता है क्या? भगवान् तो स्वयं कहते हैं - सुदुर्दर्शमिदं...
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