"राम" नाम का मूल्य
आज संसार में प्रत्येक वस्तु के मूल्य का निर्धारण उसके कीमत से होता है न कि कीमत उस वस्तु के मूल्य से तय होती है. हम इतने मूढ़ हो चले हैं कि जो अमूल्य है उसकी भी कीमत लगाने से बाज नहीं आते. संक्षेप में हर चीज के गर्दन में एक प्राइस टैग लगा है. व्यक्ति स्वयं को जितना ही rational समझता जाता है उसमें दुनियादारी की समझ बढ़ती जाती है; मन में श्रद्धा-विश्वास के भाव का क्षरण होता जाता है; जीवन के प्रत्येक संव्यवहार में उसकी बुद्धि नफा-नुकसान की गणना से ग्रस्त रहती है. स्वयं को श्रेष्ठ समझने के साथ-साथ वह हर उस व्यक्ति को दया का पात्र समझता है जो भगवान के प्रीत्यर्थ भजन भाव रखता हो. खैर विषयांतर होने से पहले मैं यह क्यों लिख रहा हूं उसके बारे में बताना चाहता हूं कि एक कथा है जिसे किसी विरक्त संत ने भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजीपोद्दार(कल्याण पत्रिका के आदि संपादक) को सुनाई थी. यह कथा कल्याण पत्रिका में प्रकाशित है. इस कथा में वर्णित है कि कैसे किसी जीवात्मा ने 'राम' नाम का मूल्य जानने की चेष्टा की थी जिसे उस जीव ने अपने सांसारिक जीवन में मात्र एक बार परव...