विद्या और शिक्षा में अंतर

शिक्षा और विद्या में अंतर करना जरा मुश्किल है, क्योंकि यह अंतर वही करने की पात्रता रखता है जो शिक्षित होने के साथ-साथ विद्यावान भी है. और विद्यावान को ऐसा करना जरूरी नहीं है. वह अंतर क्यों करे! विभेद करना अविवेकता की पहचान है जो हम जैसे व्यक्ति बड़े हीं चाव से न केवल करते हैं बल्कि उसे लिखते भी हैं. अस्तु. 
जिस प्रकार जानकारी का संग्रह शिक्षा नहीं है उसी प्रकार शिक्षित होने का अर्थ यह नहीं है कि ऐसा व्यक्ति विद्यावान भी हो हीं.
शिक्षा से जीवन को सुंदर एवं सुखमय बनाया जा सकता है किन्तु इससे अज्ञानरुपी अंधकार का नाश नहीं होता. यदि ऐसा होता तो सामाजिक मान्यताप्राप्त उच्चशिक्षित-प्रशिक्षित लोग जिसे आमजनता गौरव से देखती है, कुछ ऐसा न कर बैठते जिससे समाज में हताशा और निराशा का संचार होता हो. कभी ये शिक्षित-प्रशिक्षित किसी घपले-घोटाले या व्यभिचार-बलात्कार में संलग्न हो अखबार की सुर्खी बटोरते हैं तो कभी ये सफलता के शीर्ष पर आकर अपनी जीवनलीला को ही विषादबस अकस्मात समाप्त कर देते हैं. उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं है.
इसे अंधकार ही तो कहेंगे. 
यह विद्या है न कि शिक्षा जो इस अंधकार का नाश करने में समर्थ है.विद्या में विषाद का कोई स्थान नहीं है.शिक्षा हमें किसी शिक्षक से प्राप्त हो सकता है किन्तु विद्या नहीं. शिक्षा पाकर व्यक्ति विद्वान हो सकता है किन्तु विद्यावान नहीं. एक शिक्षित स्वार्थी हो सकता है किंतु विद्यावान नहीं. उसके जीवन का उद्देश्य परमार्थ है.
विद्या साधना और तप का विषय है. विद्या न केवल जीवन को सुखमय बनाती है इसे वह प्रकाशित कर आनंदमय भी बना देती है. 
सो कहने का तात्पर्य यह है कि शिक्षा से विवेक का उदय हो यह आवश्यक नहीं है. विवेक तो विद्यावान की ही पूंजी है. "विद्यावान" की चर्चा होने पर तुरंत जो छवि मेरे मानसपटल पर दौर जाती है वह पवनपुत्र हनुमानजी की है.
उनके बारे में गोस्वामीजी ने लिखा है-"विद्यावान गुणी अति चातुर". 
कोई बिना शिक्षित हुए भी विद्यावान हो सकता है. दादू, कबीर, रैदास ने कहीं कोई शिक्षा नहीं पायी किंतु उनके विद्यावान होने को कौन चुनौती दे सकता है? 
जहां श्रम, संयम, सदाचार और सेवा शिक्षा के अंग हैं वहीं विद्या इससे बहुत हीं उपर है क्योंकि इसमें इन चारों के अतिरिक्त दो और महत्वपूर्ण तत्वों का समावेशन पाया जाता है. ये दो महत्वपूर्ण अलौकिक तत्व प्रेम और त्याग का होता है जो किसी को विद्यावान बनाता है. 
अर्थात प्रेम और त्यागरुपी अलौकिक गुणसम्पन्न व्यक्ति ही विद्यावान है. 
इन अंतर को जानने पर स्वयं को विद्यार्थी तो क्या शिक्षार्थी कहने में भी संकोच होता है. 
राजीव रंजन प्रभाकर. 
०९.१०.२०२०.

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