रावण का रथ.

आज विजयादशमी है. मान्यता है कि आज के दिन ही मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने दसानन रावण का वध कर स्वर्णपुरी लंका पर विजय पाया था. इसी संदर्भ में भावशुद्धि-आत्मशुद्धि के निमित्त एक प्रसंग है जिसका वर्णन गोस्वामीजी ने अपनी कालजयी रचना श्रीरामचरितमानस के लंकाकांड में किया है.युद्धभूमि में श्रीराम केे पास न तो कोई रथ था न हीं युद्ध में तन की रक्षा हेतु कोई कवच या पांव में जूते. वहीं कुलिस के समान कठोर कवच धारण किये तथा हाथों में नाना प्रकार के आयुध से लैस बलशाली रावण बिजली के समान तेज गति से चलने वाले रथ पर घमंडपूर्वक सवार हो भगवान श्रीराम को ललकार रहा था.यह दृश्य देख बिभीषण को बड़ी चिंता हो गयी. अधिक प्रेम होने से उनके मन में संदेह हो गया कि भगवान राम इस रथारूढ़ रावण पर कैसे विजय प्राप्त कर सकेंगे. कहां बिजली की फूर्ति से चलकर बवंडर उत्पन्न करता रावण का रथ और कहां युद्धभूमि में उनके स्वामी भगवान राम जिन्हें न कोई रथ न कवच न पादत्राण(जूता)!अधीर बिभीषण श्रीरामजी के चरणों की बंदना कर मोह एवं स्नेह के वशीभूत हो बोले- हे नाथ! मुझे बड़ी चिंता हो रही है. आपके पास युद्ध के लिये आवश्यक न कोई रथ है न हीं शरीर को शर से रक्षा हेतु कोई कवच अथवा त्राण. प्रभु! इस प्रकार बिना रथ के आप कैसे इस बलवान रावण पर विजय पा सकेंगे?कृपानिधान रघुनाथजी ने अविचलित भाव से बिभीषण को कहा- मित्र बिभीषण! सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ ये नहीं जिस पर रावण सवार है. वह रथ हीं दूसरा होता है.शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिये हैं. सत्य और सदाचार उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं. बल, विवेक, इन्द्रियों का संयम और परोपकार-ये चार उस रथ के घोड़े हैं जो क्षमा, दया और समतारूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं.ईश्वर का भजन हीं उस रथ को चलानेवाला चतुर सारथि है, वैराग्य ढ़ाल है और संतोष तलवार. दान फरसा है, बुद्धि प्रचंड शक्ति है तथा श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है. निर्मल और अचल मन हीं तरकस है जिसमें शम, यम और शौचादि नियम - ये बहुत से बाण रखे होते हैं. ब्राह्मणों और गुरूजनों की सेवा-पूजा हीं अभेद्य कवच है.हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ ही किसी को विजय दिला सकता है न कि वह रथ जिसे देख तुम चकित और चिंतित हो.सखा बिभीषण! जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसाररूपी महान दुर्जय शत्रु पर भी विजय पा सकता है संसारी की तो बात हीं क्या है!प्रभु के इस गूढ़ उपदेश सुन बिभीषण भगवान के श्रीचरणों में अपने सिर को रख हर्षित हो बोले-हे कृपालु! आपने इसी बहाने मुझे महान उपदेश दिया. प्रभु आप धन्य हैं और इसी तरह आपकी महिमा भी.सचमुच आत्मविजय हीं विजय का सर्वोच्च सोपान है. नवरात्र के जप-तप के पश्चात फलसदृश आये विजयादशमी का संदेश भी कदाचित् यही है.शेष भगवत्कृपा.

राजीव रंजन प्रभाकर

विजयादशमी. २५.१०.२०२०.

Comments

Popular posts from this blog

साधन चतुष्टय

न्याय के रूप में ख्यात कुछ लोकरूढ़ नीतिवाक्य

प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर प्रभु का नियम बदलते देखा