धुंधुकारी और गोकर्ण की कथा

यह कथा श्रीमद्भागवत के माहात्म्यदर्शन का अंश है।
आत्मदेव नामक एक ब्राह्मण थे।उन्हें किसी चीज की कोई कमी नहीं थी। कमी थी तो बस यह कि उन्हें कोई पुत्र नहीं था। संतानहीनता ब्राह्मणदेवता को परेशान किये रहती। चित्त भी इस कारण सदैव व्यथित रहता। व्यथा का एक दूसरा कारण भी था। जितना आत्मदेव को संतान नहीं रहने का दुःख था उसका अल्पांश भी उसकी पत्नी को नहीं था। आत्मदेव की पत्नी का नाम धुंधुली था। वह हल्के स्वभाव की स्त्री थी। उसका मन अच्छी अच्छी वस्तुओं के संग्रह, वृथालाप और सुस्वादु भोजन के प्रति हीं प्रायः आकर्षित रहता। किसी बात की गम्भीरता से उसका कोई विशेष लेना देना नहीं रहता था। कहने का तात्पर्य यह कि धुंधुली मूर्ख नहीं तो मूर्खता के अधिकांश लक्षण उसमें विद्यमान अवश्य थे।
एक दिन आत्मदेव कहीं जा रहे थे। मार्ग में उन्हें एक सन्यासी मिला। सन्यासी का तेज देखते ही बनता था। मुखमंडल बालपतंग के समान अरूणाभ, सम्पूर्ण शरीर तपे हुए स्वर्ण की कांति लिये। इस साक्षात तपोमूर्ति से प्रभावित होकर आत्मदेव ने उनके चरण स्पर्श कर अपने मन की बात उस सन्यासी से कह हीं दी।
सन्यासी ने ध्यान लगाकर देखा। वे समझ गये कि आत्मदेव के भाग्य में पुत्रसुख है ही नहीं।
उन्होंने आत्मदेव से कहा, "आत्मदेव तुम पुत्र की आशा छोड़ दो। तुम्हारे भाग्य में पुत्र नहीं है। इसलिये तुमसे मैं यही कहूंगा कि तुम इन आशाओं का त्याग कर अपना जीवन और धन जनकल्याण में लगा दो।आत्मदेव तुम विवेक का आश्रय लो।"
आत्मदेव विह्वल हो गये। उसने कहा - महात्माजी विवेक से मेरा क्या होगा। मुझे तो बलपूर्वक पुत्र दीजिये, नहीं तो मैं आपके सामने हीं शोकमूर्च्छित होकर अपने प्राण त्यागता हूँ। आर्तभाव से ब्राह्मण ने हठ करना शुरु कर दिया। सन्यासी बोले, "आत्मदेव विधि के विधान को हठ से टाला नहीं जा सकता है। उल्टे हठ से कल्याण का क्षय होता है और व्यक्ति को सुख के बदले अंततोगत्वा दुःख की हीं प्राप्ति होती है।"
आत्मदेव का सन्यासी के समक्ष रोना गिरगिराना जारी रहा। अंततः सन्यासी ने कहा, "जाओ तुम नहीं मानते तो यह फल तुम अपनी पत्नी को खिला देना और अपनी पत्नी से कहना कि गर्भधारण की अवधि में संयमपूर्वक सात्विक विधि से अपना समय नारायण के चिंतन और स्मरण में व्यतीत करे।आगे प्रभु की इच्छा। वैसे मुझे जो कहना था वो मैने तुमसे पहले ही कह दिया है।"
फल को पाकर ब्राह्मणदेवता फूले नहीं समा रहे थे। मानो उन्हें अमूल्य निधि मिल गया हो। बात और परिस्थिति हीं ऐसी थी। आत्मदेव तुरंत घर लौटे और सारा वृतांत प्रसन्नतापूर्वक अपनी पत्नी से कह सुनाया और उसे फल देते हुए कहा कि शुभ मुहूर्त देखकर वह इसे खा ले।
धुंधुली ने प्रसन्न होने का स्वांग करते हुए सहर्ष उस फल को अपने पति से ले लिया किन्तु उसके दिमाग में कुछ दूसरी बात हीं चल रही थी। वह सोचने लगी, फल खाकर बेकार का झंझट मोल लेना होगा, व्यर्थ में नौ महीने शरीर को कष्ट कौन दे! मन मुताबिक घूमने फिरने और खाने की आजादी भी खत्म हो जायेगी और फिर बच्चे को पालने का बखेड़ा अलग से। न बाबा ना।
दैवयोग से धुंधुली के घर उनकी छोटी बहन आयी जो उस समय गर्भवती थी। धुंधुली ने अपने मन की बात बहन को बताया। बहन ने कहा, दीदी तूं क्यों चिंता कर रही है? मैं तो गर्भवती हूँ हीं, तुम मेरे पति के लिये मुझे कुछ धन दे देना, मैं अपने पति को झूठ बोल कर यह समझा लूंगी कि मेरा गर्भपात हो गया और मेरे गर्भ से जो शिशु पैदा होगा वह मैं तुम्हें दे दूँगी। तुम तब तक लोगों की नजरें बचाकर एकांत में रहो और अपने पति से कहना कि होनेवाले बच्चे के लिये गर्भ की सुरक्षा हेतु मेरा बहुत लोगों से मिलना जुलना ठीक नहीं, इसलिये हम एकान्त में हीं रहेंगी।
धुंधुली को अपनी बहन की युक्ति बहुत पसंद आयी। वह खुश होकर बोली, अरी बहना! तुमने तो मेरी सारी समस्या हीं चुटकी बजाते सुलझा दी! और उसने उस फल को पास हीं खड़ी गाय को खिला दिया और अपने पति के पूछने पर झूठ कह दिया कि वह फल उसने खा ली है।
इस बीच धुंधुली ने स्वांग किया कि उसे गर्भ ठहर गया है और वह योजना के अनुसार एकांतसेवन कर अच्छे भोजन एवं सुस्वादु पकवान का आनंद उठा रही थी। इधर समय पूरा होने पर उसकी छोटी बहन के गर्भ से जो बालक उत्पन्न हुआ उसे उसकी बहन ने धुंधुली को चुपके से सौंप दिया। सभी लोगों को कहलवा दिया गया कि धुंधुली को पुत्र पैदा हुआ।धुंधली ने अपने उस पुत्र का नाम रखा धुंधुकारी।
इधर जिस गाय को धुंधुली ने वह फल खिलाया उसने समय पाकर जिसे जन्म दिया वह बछड़ा न होकर आश्चर्यजनक रूप से एक मनुष्यरुपी शिशु था, सिर्फ उसके कान गाय के थे। एकसाथ दो-दो सुखद समाचार जान आत्मदेव आत्मविभोर हो गये। उसके आनंद की सीमा नहीं रही। आत्मदेव ने गाय से उत्पन्न एवं बालक के गाय जैसे कान देख उस बालक का नाम रखा गोकर्ण। आत्मदेव के लिये गोकर्ण बड़ा पुत्र था तो धुंधुकारी छोटे पुत्र के रूप में स्नेहभाजन बना। दोनो पुत्रों के प्रति पिता का स्नेह दर्शनीय था। किन्तु धुंधली को अगर प्रेम था तो मात्र धुंधुकारी से, कदाचित्  गोकर्ण को देख उसे गाय को वह फल खिलाने की घटना  याद हो आती थी जो वह करना नहीं चाहती थी। आत्मदेव या फिर कोई और इससे तो अनजान हीं थे।
समय के साथ दोनों बालक बड़े होने लगे। धुंधुकारी का स्वभाव दिनों दिन शैतानी होता जा रहा था। उसकी संगति दुष्टों की हो गयी थी। बड़ा होकर वह मद्यपान, द्यूतक्रीड़ा एवं सुंदरीसेवन का रसिक होता चला गया;अंततः अवगुणों का वह आगार बन चुका था।
इसके विपरीत गोकर्णजी का शील स्वभाव देखते ही बनता था। सदैव माता पिता की सेवा तथा गुरूजनों के प्रति सम्मान उनके स्वभाव का विशेष गुण बन चुका था। ज्यादातर समय उनका चिंतन एवं मनन में हीं बीतता। धुंधुकारी को उससे विशेष जलन होती थी। कहने की आवश्यकता नहीं है कि दुष्टों को सज्जन का संसर्ग नहीं सुहाता है। स्वार्थसाधन में सज्जन उसे बाधा मालूम पड़ता है भले ही सज्जन को उससे कोई प्रयोजन न हो। एक दिन माता पिता से आज्ञा लेकर गोकर्णजी तीर्थ यात्रा को निकल पड़े।
गोकर्णजी के घर छोड़कर चले जाने के बाद धुंधुकारी को स्वराज मिल गया। उसने अब अपने वृद्ध हो चले मां-बाप से मारपीट करना भी शुरू कर दिया था। एक दिन उसने अपने बाप से जबरदस्ती मारपीट करना शुरू कर दिया कि वह बताये कि रूपया पैसा और बांकी घर का कीमती सामान कहां छुपा रखा है और अंत में पिता को उसके अपने हीं घर से भगा दिया। दुःख एवं शोक से आत्मदेव अधिक दिन तक जीवित नहीं रहे। इधर धुंधली की भी आंख की रौशनी चली गयी। पुत्रयातना से पीड़ित-कम्पित वृद्धा धुंधुली एक दिन अंधेरे में किसी कूंए में डूब गयी और उसके प्राण चले गये।
अब तो धुंधुकारी घर पर हीं वेश्याओं को बुलाने लगा। उसका चरित्र इतना गिर चुका था कि वह सदैव काम से पीड़ित रहता। ऐसे व्यक्ति का स्वास्थ्य तो दिन प्रतिदिन क्षीण होता ही है, धन, धर्म तथा भाग्य भी नष्ट हो जाता है। एक दिन इन्हीं रूपाजीवा की मंडली जिसके साथ वह घर में ही रंगरेलियां मनाता था, ने मौका देख धुंधुकारी को गला दबाकर मार डाला और वे सारा माल मता लेकर चम्पत हो गयीं।
इस प्रकार धुंधुकारी की जो दुर्गति हुई वह मरणोपरांत भी समाप्त नहीं हुई। मरने के बाद धुंधुकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति हुई। मुक्ति के लिये सदैव छटपटाता वह प्रेत बन वायुभक्षण कर प्राणपोषण करने को विवश था।
गोकर्णजी जब घर लौटे तो अपने माता-पिता का निधन तथा भाई की मृत्यु का समाचार जान अत्यंत दुःखी हुए। उन्होंने विधिपूर्वक माता-पिता एवं भाई धुंधुकारी का घर पर श्राद्घ कर्म किया। तदनंतर वे गयाजी जाकर भी उनका श्राद्घ-तर्पण कर घर लौटे। रात्रि  में उसी घर में शयन करने गये जहां पहले सोते थे, हांलाकि लोगों ने उन्हें इसके लिए मना भी किया कि घर से कभी रोने तो कभी हंसने तो कभी चीत्कार की आवाज सुनाई देती है। लेकिन गोकर्णजी नहीं माने। आधी रात बीतने पर सही में चित्र-विचित्र की कारूणिक आवाज गोकर्णजी को सुनायी देने लगी।
साहस करके गोकर्णजी ने पूछा- कौन है?
फिर एक घिघियाई सी रूआंसी आवाज जो एक कोने से आ रही थी, पर ध्यान देने पर गोकर्णजी ने सुना।
गोकर्ण भैया ! मैं तुम्हारा भाई धुंधुकारी बोल रहा हूँ।अपनी दुर्गति की कथा बहुत क्या बताऊँ! बस इतना ही समझो कि मैं मृत्यु के बाद प्रेत बन चुका हूँ। बहुत कष्ट में हूँ। मुझे इस प्रेतयोनि से छुटकारा दिलाओ मेरे भाई! बहुत क्या कहूँ।"
गोकर्णजी ने कहा," भाई धुंधुकारी! मैने तो तुम्हारा विधिपूर्वक श्राद्ध कर्म सम्पन्न किया है। यहां तक कि गयाजी जाकर वहां भी तुम्हारे निमित्त श्राद्घ-तर्पण एवं पिण्डदान कर आया हूँ। क्या तब भी तुम्हें मुक्ति नहीं मिली?"
" भाई! एक बार की कौन कहे यदि तुम हजार बार भी गया जाकर मेरे मुक्ति के लिए श्राद्ध तर्पण या पिण्डदान कर आओ तब भी मुझे मुक्ति मिलने से रहा", रोते हुए धुंधुकारी ने कहा।
" तब मुझे क्या करना चाहिए जो तुम्हें इस कष्टयोनि से मुक्ति मिले?", गोकर्णजी बोले।
धुंधुकारी ने कहा," ये मैं नहीं जानता। तुम विद्वान तथा धर्मात्मा दोनो हो, तुम्हीं कुछ कर सकते हो।"
'ठीक है मुझसे जो बन पड़ेगा वह मैं जरूर करूंगा', इतना कह गोकर्ण सोने का उपक्रम करने लगे;किन्तु नींद नहीं आयी। सोचने लगे कि जब गयाजी में पिण्डदान से भी धुंधुकारी को मुक्ति नहीं मिली तो फिर क्या करना चाहिये। सुबह होने पर उन्होंने यह बात सभी को बताया किंतु किन्हीं को कुछ कहते नहीं बन पड़ा कि आखिर जब गयाजी का माहात्म्य जब धुंधुकारी को मुक्ति नहीं दिला पाया तो फिर क्या करना शेष रह गया जो धुंधुकारी अभी भी प्रेतरूप में छटपटा रहा है!
समाधान की खोज में गोकर्ण पुनः घर से निकल पड़े। मार्ग में वही सन्यासी के दर्शन हुए जिन्होंने गोकर्ण के पिता आत्मदेव को फल दिया था। हालांकि गोकर्णजी इन सब से अनभिज्ञ थे। अस्तु।
महात्मा सन्यासी ने कहा-यदि तुम अपने भाई की मुक्ति के लिये वास्तव में कुछ करना चाहते हो तो श्रीमद्भागवत की कथा सप्ताहश्रवण विधि से अपने घर पर कराओ। श्रीमद्भागवत की कथा दुर्धष अघराशि को भी मुक्ति दिलाने में समर्थ है।आगे नारायण की इच्छा।
गोकर्ण यह सुनकर घर आये और भागवतकथा हेतु आवश्यक तैयारी में जुट गये। कथा श्रवण के प्रयोजनार्थ सभी इष्ट मित्र, कुटुंब, बन्धु-बान्धव, ऋषि-मुनि एवं देव समाज को यथाविधि निमंत्रित तथा आह्वान कर नियत तिथि एवं शुभ मुहूर्त पर गोकर्णजी ने अपने घर के सामने दालान पर हीं भगवान् को सुंदर आसन पर प्रतिष्ठित कर स्वयं व्यासगद्दी पर बैठ कथा बांचना आरम्भ किया। सभी देव, मुनि समाज भी कथा सुनने हेतु पधारे हुए थे। परिजन, बन्धु-बान्धव सभी यथास्थान ग्रहण कर कथारम्भ की प्रतीक्षा करने लगे।
तभी जोर की सनसनाहट एवं खड़खड़ाहट होने लगी। किसी के कुछ समझ में नहीं आया। हुआ ये कि प्रेत धुंधुकारी भी कथा सुनने पहुंच चुका था। वायुरूप में होने के चलते उसे बैठने में कठिनाई महसूस हो रही थी। अचानक पास रखे सात गांठों वाले बांस को देख वह तत्क्षण उसी बांस में समाकर बैठ गया। उपस्थित लोगों ने महसूस किया सनसनाहट एवं खड़खड़ाहट की आवाज थम गयी थी।
गोकर्णजी ने जब पहले दिन की कथा का श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक समापन किया तो लोगों ने देखा कि बांस की एक गांठ तड़तड़ाहट की आवाज के साथ फटकर ढ़ीली हो गयी। इसी तरह दूसरे दिन की कथा समाप्ति के पश्चात दूसरी गांठ फट-टूट कर ढ़ीली हो गयी। गांठ का क्रम से स्वयमेव टूट जाना प्रत्येक दिवस के कथा समापन के अनन्तर स्पष्ट रूप से देखा जा रहा था। किसी को इसका कोई कारण नहीं सूझ रहा था।
सातवें दिन कथा समापन के तुरंत बाद लोगों ने देखा कि बांस का सातवां गांठ भी तड़तड़ाहट के साथ टूट गया और उससे दिव्यशरीरधारी पुरूष निकल कर गोकर्णजी के सम्मुख उपस्थित हुआ।उसने हाथ जोड़कर बोलना प्रारंभ किया,"भाई गोकर्ण! मैं धुंधुकारी हूँ जिसे आपकी कृपा से हीं इस प्रेतयोनि से छुटकारा मिल सका। मैं आपके इस उपकार को कभी नहीं चुका सकता हूँ।"
दिव्यशरीरधारी धुंधुकारी ये कह हीं रहे थे कि भगवान् विष्णु के पार्षदगण धुंधुकारी को भगवान् के परमधाम ले जाने हेतु दिव्यविमान के साथ पहुंच गये। पार्षदगण ने कहा, हे उपस्थित सुधी, भागवत प्रेमी एवं श्रद्धालु समाज! भगवान् की आज्ञा से हमें धुंधुकारी को भगवान् के परमधाम ले जाने हेतु विमान के साथ भेजा गया है तथा अब धुंधुकारी का निवास भगवान् का परमधाम होगा।
लोग यह सुनकर अचम्भित थे। भला भागवत की कथा सभी ने सुनी परन्तु ऐसा क्या जो प्रेतयोनि पीड़ित महापापी धुंधुकारी भगवान् के धाम पहुंच जाय और शेष लोग उस फल से बंचित रहे जो धुंधुकारी को श्रवणलाभ से सद्यः प्राप्त हो गया ! यह तो न्यायसंगत नहीं हुआ। आदि आदि।
पार्षदगण बोले- इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। श्रवण-भेद से फल-भेद स्वाभाविक है। जिस एकाग्रता, तन्मयता, चिंतन-मनन तथा श्रद्धा एवं विश्वास के साथ धुंधुकारी ने कथा श्रवण किया वैसा आपलोगों ने नहीं किया। यदि धुंधुकारी के समान दत्तचित्त तथा निष्ठापूर्वक आपलोग भी कथा सुनेंगे तो आश्चर्य नहीं कि आपको भी वही फल मिले जो महात्मा धुंधुकारी को मिला। इतना कह पार्षदगण ने सभी के आंखों के सामने हीं धुंधुकारी को विमान में बिठाया और विष्णुलोक को प्रस्थान कर गये।
अगली बार गोकर्णजी ने पुनः कथावाचन आरम्भ किया। पार्षदगण के कहे मुताबिक सभी लोग उसी श्रद्धा एवं विश्वासपूर्वक कथा श्रवण में लीन हो गये जिस भाव एवं निष्ठा से धुंधुकारी ने कथा सुनी थी।
लोगों ने देखा एक विशाल दिव्यविमान के साथ वही पार्षदगण सभी को भगवान् के धाम ले जाने हेतु आ गये हैं। सभी श्रोता सदेह भगवान् के दिव्यधाम की यात्रा हेतु विमान में बैठ गये। वे सभी भगवान् की नगरी के अब निवासी बन चुके थे। गोकर्णजी को लेने भगवान् स्वयं आये और वे गोलोकवासी हो गये।
प्रेतपीड़ा का नाश करनेवाली श्रीमद्भागवत की कथा धन्य है।
संक्षेप में मैने अपनी लेखनी को पवित्र करने के लिए ही यह कथा  जो श्रीमद्भागवत माहात्म्य के अध्याय चार एवं पांच पर आधारित है, कतिपय महत्वहीन परिवर्तन के साथ लिखने का प्रयत्न किया है।यदि किन्हीं को पढ़ने के अनन्तर अच्छा लगे तो यह इस लेखक का सौभाग्य होगा।
शेष भगवान् की इच्छा।
राजीव रंजन प्रभाकर.
इन्दिरा एकादशी
आश्विन-कृष्ण
२५.०९.२०१९.

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