बदलाव -एक सोच का
अब से कुछेक माह पहले तक मेरी बेटी महज़ एक कालेज की छात्रा थी. एक सरकारी विभाग में नयी-नयी नौकरी लगने के बाद वह मुज़फ्फरपुर में रहने लगी है. प्रायः अकेले ही वह वहाॅं रहती है; वैसे उसकी माॅं भी मोहवश वहाॅं चली जाती है और कुछ दिन रहकर फिर वापस पटना लौट आती है. उसकी माॅं की स्थिति तो एक पेंडुलम जैसी हो चली है; कभी यहाॅं कभी वहाॅं. वह शनिवार को आफिस के बाद पटना आयी है. मैं जब आफिस से लौटा तो उसे शाम में घर आया देख बहुत खुशी हुई. ******************************************** दिन- रविवार बेटी- पापा चलिए मुझे अपने लिए कुछ ड्रेस खरीदना है. कल सवेरे मुझे वापस मुजफ्फरपुर लौट जाना है [पहले भी मैं उसके साथ जाया करता था जहाॅं मेरा काम उसके खरीददारी का भुगतान करने तक सीमित था, बांकि ड्रेस पसंद करने का काम उसके खुद का होता था जिसमें मैं चाहकर भी भागीदार नहीं हो सकता था. वजह साफ थी; मेरी पसंद अपनी जेब की सेहत को देखते हुए होती थी जबकि उसकी पसंद को मेरी जेब की सेहत से कोई ख़ास लेना-देना नहीं रहता था. अपनी पसंद ही उसके लिए सर्वोपरि था. दुकान भी हाय-फाय और दुकानदार भी एक ...