संगठन की समस्या
मैथिली साहित्य के हास्य-व्यंग्य-विनोद सम्राट स्व० प्रोफेसर हरिमोहन झा की एक रचना "झाजी'क चिठ्ठी" जो मैथिली में है, अभी हाल ही में पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ. उनकी ये रचना काफी पुरानी है जो लगभग १९५०-६० ई० के समय लिखी गई होगी.परिवेश भी उसी समय की कल्पना करके पढ़ना उचित होगा.
उसी मैथिली में उनकी इस रचना का मैंने कतिपय महत्वहीन परिवर्तन के साथ हिंदी में अनुवाद करने का प्रयत्न किया है.पढ़कर शायद अच्छा लगे.
वैसे किसी रचना का अनुवाद तो जोखिम भरा है हीं साथ हीं यह भी सत्य है कि वो मौलिकता,रस एवं भाव भी किसी रचना के अनुवाद में मिलना असम्भव है.
फिर भी चूंकि मैथिली मेरी मातृभाषा है और हिंदी बचपन से पढ़ी है इसलिए ऐसा करने का साहस जुटा सका हूं.
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झाजी की चिठ्ठी
आदरणीय सम्पादकजी,
आपका पत्र मिला. मुझे जो आपने कोई रचना भेजने का आदेश दिया है; उसके बारे में हम क्या कहें कुछ समझ में नहीं आ रहा है.
मैं इस समय एक अजीब उलझन में हूं और हाथ काम नहीं कर रहा सो अलग. वरना आपके आदेश की नाफरमानी का हममें साहस कहां!आप तो मेरे अन्नदाता ठहरे!
और समझ लीजिए कि उस समस्या को मैंने खुद ही मोल लिया है;भला आपसे क्या छुपाना!
बात ये है कि न जाने किस मुहूर्त में मुझे यह सनक सवार हुआ कि मुझ जैसे सुशिक्षित नवयुवक को सामाजिक समस्या के निदान-समाधान हेतु सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए. वरना इतना पढ़ने-लिखने का अपने समाज को क्या लाभ?
मेरा गांव जो है न सम्पादकजी! क्या कहें आपको! बरसात के दिनों में तो रास्ता और खेत में तो कोई अंतर हीं नहीं रह जाता है. बिना बरसात के भी चहुंओर थाल और कीच. यहां इतनी समस्या है कि क्या बताएं.प्रतिदिन कुछ न कुछ होते हीं रहता है.कभी खेत के आरी-सीमान को लेकर विवाद तो कभी नली-गली का झगड़ा! छोटे-बच्चे के बीच मामूली कहासुनी को लेकर बड़े-बड़े को लाठी-लठौवल से भी परहेज नहीं रह गया है. कोर्ट-कचहरी का मामला-मुकदमा समझिए तो मेरे गांव में सामान्य बात हो गई है. जिस दिन कुछ झगड़ा-टंटा नहीं हुआ वह गांव के लिए शुभ दिन समझिए.गांव में विकास हो इसके लिए किसी को फुर्सत नहीं है. नवयुवकों में तो दिन भर ताश और शतरंज की बाजी चलती रहती है.
सड़क,अस्पताल,विद्यालय से किसी को कोई विशेष प्रयोजन नहीं है. मैंने भी तो पटना में चाचा के यहां रहकर ही अपनी पढ़ाई पूरी की थी.वरना गांव में वह सुविधा कहां! मेरे गांव में आज भी एकमात्र विद्यालय के रूप में एक संस्कृत विद्यालय है जो महाराज दरभंगा की कृपा से बना और उनकी हीं कृपा से चल भी रहा है;कारण विद्यालय के नाम पांच बीघा भूमि है जिसकी आय ही विद्यालय के शिक्षकवृंद के वेतन का स्रोत है.अस्तु.
सो मैंने भी सोच लिया कि गांव के विकास के लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान अपने गांव में हीं संगठन बना कर किया जाय. शुरू से सुनते आए हैं -भारत की आत्मा गांव में ही बसती है.
और गांव में दस लोग मुझे पहचानते भी हैं तो वे संगठन बनाने में मददगार भी होंगे. समझिए कि मैं पूर्ण आशा और उमंग से भरा हुआ था.
लबालब उत्साह के साथ मैंने गांव में 'संगठन' बनाने के औचित्य एवं उद्देश्य का संक्षेप में वर्णन करते हुए झटपट एक निवेदन-पत्र लिखा जिसका शीर्षक था
" (----) गांव में एक जागरूक संगठन की स्थापना हेतु नम्र-निवेदन"
यह लिख मैंने सीधा विद्यालय का रूख किया; सोचा इस पवित्र कार्य की शुरुआत विद्या के मंदिर से ही हो.
विचार आया कि निवेदन-पत्र पर पहले शिक्षकगण का आशीर्वादस्वरूप हस्ताक्षर लेकर हीं आगे किन्हीं के पास जाउंगा.
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सर्वप्रथम भेंट हुई वैयाकरणजी से.निवेदन पत्र को पढ़ वे मुझसे पूछने लगे.
वै०- पहले ये बताइए कि आप कुछ भी अशुद्ध लिख देंगे और हम उस पर हस्ताक्षर कर अपनी बेइज्जती करवा लें?
मुझे कुछ समझ में नहीं आते देख वे फिर गर्व से बोले- 'संगठन' शब्द हीं अशुद्ध है.जब संस्कृत में 'गठ' धातु हीं नहीं है तो संगठन शब्द कहां से उत्पन्न हो जायेगा? आपकी मर्जी चलेगी क्या कि आप किसी चीज में उपसर्ग-प्रत्यय लगा दीजिएगा?
मैंने विनम्रतापूर्वक कहा-ठीक है तब यहां क्या होना चाहिए बता दीजिए.
उन्होंने एक पल सोचा और फिर कहा- "संघटन" सही शब्द होगा.
मैंने कहा-ठीक है यही सही.
वे पुनः बोले- केवल कहने से नहीं होगा. उस 'संगठन' शब्द को काट कर 'संघटन' जब तक नहीं करियेगा तब तक मैं अपना हस्ताक्षर इस निवेदन-पत्र पर नहीं करनेवाला.
मैंने कहा-श्रीमान!अपने से काटकर बना दिया जाए.
उन्होंने गर्व से कलम हाथ में लिया और 'संगठन' शब्द को काट कर 'संघटन' बना कर अपना हस्ताक्षर कर निवेदन पत्र मुझे सौंप दिया.
मन भीतर ही भीतर अप्रसन्न हो गया.
प्रथमग्रासे मच्छिकापात:
फिर निवेदन-पत्र लेकर पहुंचा मैं दूसरे अध्यापक के पास. अध्यापक महोदय कर्मकाण्डी थे. निवेदन पत्र में 'संगठन'को काट कर 'संघटन' किया देख कर्मकाण्डीजी पूछने लगे - संघटन!इसका क्या अर्थ?
मैंने चुप रहना ही श्रेयस्कर समझा.
वे कहने लगे- 'संघटन' से आपका यही न अभीष्ट हैं कि सब कुछ सब में मिल जाय? समाज में स्पृश्यास्पृश्य का कोई विचार नहीं रहे और समाज भ्रष्ट हो जाय? कम से कम हमको बचाए रखिए इस जाल से.हमको इस भैरवी चक्र में मत सानिये.
मैंने दुःखी होकर कहा- पंडितजी इसका अर्थ ये नहीं है जो आप समझ रहे हैं.
कर्मकाण्डीजी- तब इसका क्या अर्थ है आप ही मुझे बुझा दीजिए.
हम- इसका अर्थ यही लेना चाहिए कि सभी लोग सामूहिक उत्थान के लिए परस्पर सहयोग करें.
कर्मकाण्डीजी-तब केवल संघ रखिए. तब मुझे कोई आपत्ति नहीं. इसलिए 'संघटन' में का 'टन' हटा दीजिए फिर हम अपना हस्ताक्षर इस निवेदन-पत्र पर कर देंगे.
यही किया गया.
'संघटन' खंडित होकर केवल 'संघ' हो गया.
तीसरे अध्यापक जी के पास जब निवेदन-पत्र लेकर पहुंचा तो वे 'संघ' शब्द लिखा देख ही भड़क गए. पीछे मालूम चला वे वैदिक शास्त्र पढ़ाते हैं.
उन्होंने आपत्ति करते हुए कहा-'संघ' क्यों? ये तो बौद्ध सम्प्रदाय का सूचक है!नास्तिक भिक्षु सब वेद विरोध के प्रयोजनार्थ संघ बनाते हैं.नहीं नहीं; मैं ऐसे निवेदन पत्र पर अपना हस्ताक्षर नहीं करता जिससे वेद विरुद्ध शब्द का समर्थन होता हो. मैं पूछता हूं आपको कोई दूसरा शब्द नहीं मिला था?
हम- ठीक है तब आप ही कोई उपयुक्त शब्द चुनकर लिख दीजिए ताकि आगे कार्य बढ़े.
सामवेदीजी सोचने लगे. आंखें मूंद सोचते-सोचते फिर बोले-आप "समवाय" शब्द रख सकते हैं.
अस्तु;
"संघ"को काट कर "समवाय" बनाना पड़ा.
अब जो अध्यापक महोदय मिले वे नैयायिक थे.
वे "समवाय" शब्द देखते हीं शास्त्रार्थ की मुद्रा में आ गए.
'समवाय'! इसका क्या अभिप्राय? समवाय नित्य सम्बन्ध को दर्शाता है.और जो नित्य है उसके लिए प्रयत्न कैसा! मैं पूछता हूं समवाय कब नहीं था जो आप इसे स्थापित करने चले हैं?
ये तर्क सुन मैंने मन ही मन भगवान को सुमिरन करना शुरू कर दिया.
हे दीनबन्धो! दयासिंधु!करूणावरूणालय!
यह जटिल तर्कपाश बिना आपके सुदर्शन चक्र के खंडित होनेवाला नहीं है. प्रभु!नैयायिकजी के जाल से मेरा उद्धार कीजिए.
नैयायिकजी मुझे अप्रतिभ देख बोले- सोचते क्या हैं? पहले आप सिद्ध कीजिए कि "समवाय"का अभी अभाव है तभी तो इसकी स्थापना हो सकती है.आपकी बुद्धि इतनी भी अल्प नहीं होनी चाहिए जो आप "समवाय" को अनित्य समझ बैठें.
फिर नैयायिकजी हम पर दया दिखाते हुए बोले- देखिए; इसमें आपका दोष नहीं है.बात ये है कि यदि आप गौतम का न्यायशास्त्र पढ़े होते तो आप समवाय शब्द का अनर्गल प्रयोग नहीं करते.आपलोग 'समवाय' और 'संयोग' में अंतर करना सीखिए.
नित्य सम्बन्ध: समवाय:-अनित्य सम्बन्ध: संयोग:
"समवाय" अनादि और अनंत है जबकि "संयोग" सादि और सांत है.इसलिए कोई प्रयत्न संयोग के लिए किया जा सकता है समवाय के लिए नहीं!समझे आप?
मैंने कहा-जी.
फिर उन्होंने अधिकारपूर्वक अपने हाथ से 'समवाय' को काटकर 'संयोग' बना दिया.
उसके बाद जो अध्यापक मिले वे साहित्याचार्य थे."संयोग" शब्द देखते ही बिहंसने लगे.
व्यंग से उन्होंने पूछा-क्या इसमें 'नायक' हीं केवल रहेंगे अथवा 'नायिका' भी? बात ये है कि अभी आप नवयुवक हैं. होली का समय नजदीक आ रहा है इसीलिए भांति-भांति के विचार मन में आना स्वाभाविक है.जो जो मन करे करते जाइए.किंतु हम जैसे वयोवृद्ध के लिए अब 'संयोग' का कोई प्रसंग नहीं रह गया है. मेरे लिए तो अब 'योग' का मार्ग हीं उचित है.जो तरूण-तरूणी हों उन्हें इस 'संयोग' में शामिल कीजिए.विशेष क्या कहें आप स्वयं समझदार हैं.
अब कौन उपाय किया जाय? जहां जाता हूं वहीं झटका खा रहा हूं.
इसी उहापोह में मुझे ज्योतिषीजी मार्ग में मिल गये. सारी बात सुन वे गंभीर होकर बोले-आप दक्षिण दिशा से चले आ रहे हैं और नेक कार्य के लिए दिक्शूल में भी भला कोई चलता है क्या! ऐसे में आपका कार्य सफल हो भी तो कैसे?
उसी समय आयुर्वेदाचार्य भी न जाने कहां से उपस्थित हो गये.सब बात समझने पर बोले झाजी!जब तक लोगों का पित्त और वायु शांत नहीं होगा तब तक कोई झगड़ा बंद होना असम्भव है.
झाजी! यदि स्थायी एकता चाहते हैं तो सब लोगों को गूलर खिलाइये.गूलर में पित्त और वायु दोनों को शांत करने का सामर्थ्य है.यदि चाहिए तो हम आपको दें.कीमत मात्र एक रूपया है.अभी पैसा नहीं है तो बाद में भी दे दीजिएगा.
सम्पादकजी! इन सारे प्रकरण से मैं इतना शारीरिक और मानसिक रूप से थक गया कि सोचा तत्काल घर हीं चलें.
रास्ते में ही मेरे परिचित खट्टर मिसिर मिल गये.
उन्होंने पूछा-झाजी! कहां बौख रहें हैं? मैंने अपनी सारी व्यथा एवं परेशानी उन्हें विनम्रतापूर्वक बतला दिया.
सुनकर वे बोले-झाऽऽजी!आपको कोई और काम-धाम नहीं है? धुरजी!चलिए मेरे साथ. मुझे एक खटिया घोरना है.आप एक तरफ से डोरी पकड़-पकड़ के तानकर खिंचियेगा.
सम्पादकजी!एवम् प्रकार से मैं ऐसा बेगारी में पकड़ा गया कि अब जाकर छुट्टी मिली है. मूंज की रस्सी से हाथ घिसकर छिला गया है जो अभी भी भकभका रहा है.
ऐसे में हम कौन लेख आपको भेजें सो आप हीं बताइए.
आपका स्नेहाकांक्षी
सेवाकांत झा.
मैथिली से अनुवाद एवं प्रस्तुति-
राजीव रंजन प्रभाकर.
१९.०८.२०२१.
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