प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर प्रभु का नियम बदलते देखा

यह निश्छल प्रेम और समर्पण हीं है जिसके वशीभूत होकर भगवान् अपनी समस्त मान-मर्यादा को त्याग अपने भक्त के मान की रक्षा के लिए कुछ भी करने को आतुर हो उठते हैं. भक्त के प्राण,मान, प्रतिष्ठा और टेक की रक्षा में वे अपना कुछ भी ख्याल नहीं रखते हैं. ऐसा हो भी क्यों न! आखिर भक्त भगवान् का हीं तो अंश है! भक्त और भगवान् का वही सम्बंध है जो अंश और अंशी का है. इस तरह अंशी यदि अपनी महिमा का विस्तार अंश की रक्षा के लिए करे तो यह सर्वथा अनुकूल बात हीं कही जायेगी. तभी कहा गया है - प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर प्रभु का नियम बदलते देखा। अपना मान भले टल जाय भक्त का मान न टलते देखा।। जी हाँ; भगवान् की प्राप्ति न ज्ञान से, न ध्यान से, न यज्ञ से न दान से सम्भव है;यदि यह सम्भव है तो एकमात्र उनके प्रति समर्पित प्रेम से. अर्जुन का भगवान् के प्रति प्रेम हीं था जिसके वशीभूत हो उन्होंने अर्जुन को अपना दुर्लभ चतुर्भुजरुप तक का दर्शनलाभ प्रदान कर दिया. वरना जन्म-जन्मान्तर तक की तपस्या से भी क्या कोई इनके चतुर्भुजरुप का दर्शन बिना इनकी कृपा के प्राप्त कर सकता है क्या? भगवान् तो स्वयं कहते हैं - सुदुर्दर्शमिदं...